अवलम्ब - तृषित

*अवलम्ब*

प्रबल प्रपंच की वेदनाओं में
छूती मधुरा कोमल पदतल से हिय तुम

सघन विक्षेप द्वन्द संग्रामों के
उधर सन्ध्या हो सजती नृत्तिका सी तुम

विकट जीवन की अन्धतम घाटियों से
निकुंज की बेलियों में फुलनियों को छूती तुम

हे स्वामिनी , हे स्वामिनी
फुल्ल प्रफुल्ल हियरागिनी
मोद प्रमोद वर्षिणी गजगामिनी

बद्ध तमस पंकिल पशुत्व भंग करती
हे करुणे ...

हरिहरा गौरांगी , हे कुमुदिनी
महारस पियहिय आह्लादिनी
दृग कोर कोर संग संग नृतत
नवनवीन श्रृंगारधरा स्फुरिणी

कौन अदृश्य धागों से तुम स्वामिनी
संतप्त उर के छालों पर मधुर हारावलियाँ सजाती हो ...

निक्षिप्त पात की वेदना को कैसे ...
पियकरफुलनियों की हियनाद से नचाती हो तुम ...

अपराधों की फिसलन से तुम
मधुर अवलम्ब सँग ...और सँग रखती हो तुम
Trishit (तृषित)

Comments

Popular posts from this blog

Ishq ke saat mukaam इश्क के 7 मुक़ाम

श्रित कमला कुच मण्डल ऐ , तृषित

श्री राधा परिचय