चिन्तन और विहार , तृषित

*चिन्तन*

समस्त चिन्तन चिन्तनों से छूटने को होवें । तब वह विशुद्ध होते हुये प्रेम वल्लरी के फूलों से अभिन्न कर देंगे ।

चिन्तन आत्म अवलोकन है , स्वयं को दिखाता है । स्व का विकास ही चिन्तन समझा जाता है ।

परन्तु प्रेम मार्ग का चिंतन भी विचित्र है । स्व के चिन्तन शून्य स्थिति पर ही प्रेमास्पद के सुख का चिन्तन गूँथन खुलता है ।
प्रेमास्पद के सुख के लिये कही गई प्रेम की वार्ता से भी अगर स्व सुख का ही चिन्तन बनें तो बात पूरी बनी नही है ।
स्वयं की चिंता को प्रेमास्पद के सुख में  डुबो देना है । चिंतन का विकास तभी है जब वह प्राणाधार का सुख गूँथन करने लगें ।
चिन्तन शून्य स्थिति अद्भूत है , यहाँ बहुत प्रगाढ शान्ति है परन्तु प्रेमास्पद (प्रियतम ) सुख चिन्तन की स्थिति तो हृदय को जो सुख देती है वहाँ केवल शान्ति नहीं मिलती । वहाँ मिलता है ...हियोत्सव । प्रियतम हृदय का सम्पुर्ण सुख-बिहार ही यहाँ हृदय को नित्य बिहार मे डुबो देता है ।
चिंता से चिन्तन , चिन्तन से शान्ति फिर यह नित्य अत्यन्त मधुरतम दिव्य बिहार ।
बाह्य जगत के चिंतकों को देखिये , वह शान्ति हेतु देह को हिमालय- हिमाचल की वल्लरियों की सुगंध में डुबो कर चिन्तन को शून्य कर पाते है ।  शून्य हेतु बाहर सुगंधित बिहार जुटाते है , अर्थात स्व हित हेतु योग केंद्र प्राकृतिक रमणीय धरा पर ही असरदार है । यह केंद्र चिन्ता को चिन्तन फिर शान्ति तक लाना चाहते है । इन सब में स्व की चिंता छुटती नही है ।
हम जिस पथ के चिंतक है वहाँ सुख लेने हेतु सुख की वर्षा की जाती है श्रीयुगल पर । रमण मन को तोष देता है , कर्म  से उपाधि हेतु भोगी भी अवकाश चाह कर रमण जुटाते है , पर्यटन द्वारा । यही अखण्ड अनन्त अवकाश और नित्यरमण नवनव विहरण ही हमारा हृदय हो जावे श्रीराधारमण की रमण स्थली श्रीवृन्दावन करूणा से । केवल चिन्तन ना हो बिहार का ,हृदय उनकी बिहार स्थली हो जाएँ ,कुँज (रसभावों का समूह) हो जावें । जो हिमालय की कन्दरा या घाटियाँ किसी योगी को चिंताओं से चिन्तन फिर निर्वाण में भिगो देती है वह स्वयं इस स्थिति में भरी है सो देती है , यहाँ बाहर का चिंतक कुँज जुटा कर उससे अर्थ चाहता है । कृपा से हम जिस पथ पर है वहाँ हमें वह सुख-कुँज ही हो जाना है ।
यहाँ यह श्री युगल को सुखी करती नित्य सुखकुँज नित्य ही नव और सघन है सो वहाँ कुँज से हुई आत्मीयता कभी शिथिल होती ही नहीं क्योंकि भीतर एक बार वह नित्य मधुता खुल जाती तब नित्य ही नवीनतम नवीन नित्य ही नई और नई अति मधुर होती जाती । नवीनता का अर्थ ही रस है । जो स्वाद नवीन ना हो वह रस नहीं है । यहीं रस चिन्तन है , अब यह ना चिन्तन कीजियेगा कि कब हमें यह नित्य सुख कुँज का दर्शन या अनुभव मिलेगा ???
लालसा रह्वे कि कब हम नित्य सुख दे सकेंगे , कब हम नित्य सुखी श्रीयुगल के सुख के वर्धन के ही चकोर होंगे कि क्या इनका सुख बढ रहा है । कब हम सेवाओं से और उन्मादित होंगे  और सेवा ही कब हम निहारेंगे । कब हम इन श्रीयुगलप्राण को नित्य-नव स्वाद ही चखायेंगे ।  लालसाओं को स्वसुख से हटा कर उनके हेतु ही जो अनुभव करते है वहीं वहाँ चकोर है ...युगल जोडी प्यारीप्यारे के विलास के । जैसे कुम्हार एक पात्र बनाकर उसी को नहीं देख कर राजी होता , तुरंत दुसरा बनाता है वैसे ही युगल सुख का विलास कुँज रसिक (सखी) रच कर तुरंत और विलास रचती रहती है । विलास अर्थात जहाँ सम्पुर्ण सुख सेवा सेवक बन श्रृंगारित हो । तृषित । हमारा पथ नित्य नव श्रृंगार विलास के चिन्तन भर का नही । उस विलास का ही कोई रँग - रस हो जाना है । हममें कुँज है ,कुँज में हम है । हियोत्सव के सभी भाव सुनियेगा । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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