निभृत रस - तृषित
*निभृत*
निभृत निकुंज , निकुंज कोई रतिकेलि के निमित्त एकांतिक परम एकांतिक गुप्त स्थान भर ही नहीं , वरन श्रीयुगल की प्रेममयी अभिन्न स्थितियों के दिव्य भाव नाम हैं । प्रियतम श्यामसुंदर का रोम रोम गहन निभृत निकुंज है । श्रीश्यामसुंदर ही अनन्त महान निभृत स्थिती हैं जो प्रत्यक्ष होकर भी प्रकट नहीं । प्रत्यक्ष होने पर भी जिसे जाना न जा सके , वह महा निभृत स्थिती श्रीश्यामसुंदर हैं । निकुंज स्थिती ही दृष्टिगोचर होती है । अर्थात् लीलानिरत युगल अवस्था होने पर ही वह हृदयंगम हो अनुभव का विषय हो पाती है । युगल रूप होने से युगल होने पर ही दृष्टिगोचर होते हैं । एक विग्रह में युगल के दर्शन भावना होने पर भी कुछ न कुछ द्वैत ही खोजा जाता , चाहे श्रृंगार रूप हों अथवा दो मिलित वपु रूप । और यही द्वैत की रसकेली निकुंज का रसविलास हो सखियों का एकमात्र जीवन स्वरूप है ।
निभृत वह प्रीति की रीति है जहाँ प्रेमी स्वयं भी ना होकर केवल प्रेमास्पद सुख होता है ... अनुभव लालसा भी एकान्तिक सुख लालसा में डूब जाती है ।
श्रीयुगल नित्य निभृत है ,प्रकट होकर भी उनकी आन्तरिक प्रीत-रीत बडी ही सघन होती है । प्रीति की अति गाढतम सघनता - भाव स्थिरता - विलम्बित हाव भाव निभृत रस में गहन होते जाते है । प्रेमास्पद सुख और सँग से चित्रवत प्रगाढ्ता में अति ही सघन भारवत पलकन का उठन-झुकन ही सघन प्राणों से अतिस्निग्ध गाढता में सम्भव हो पाता है । भावातीत भावसुख भावोन्माद भावरोमन्च का भावगाढ्ता से भावगूँथन निभृत रस है । निभृतविलासी का नित्य सँग भी उनके निभृत सुख को चुरा नही सकता । तृषित । इस सुख का दिव्य इन्द्रियां भी अनुभव नहीं जुटा सकती है । जैसे अतिशीतलता से कोहरा दृश्य पर पट लगा देता है , वहीं शीतल समीर सौंदर्य दर्शन की इच्छा को भी शीत की अति से स्थिर कर देती है ... स्वभाविक ही रसप्रगाढ्ता से समस्त भाव और भाव मंजरीयाँ नित्यनिभृत की शीतलता से इतनी मधुता को केवल युगल की ही निजनिधि मानते हुये ,अनुभव की चोरी नहीं करते ...जो अनुभव श्रीयुगल का अन्य में प्रकट हो वह निभृत नही होता , श्रीयुगल का परस्पर नित्य आन्तरिकतम आत्मरमण निभृत रस... । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी।। Do Not SHARE
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