रूप विश्राम , तृषित
*रूप विश्राम*
मधुर मन्द श्री श्यामसुन्दर के मुस्कान पर । मुस्कान यहाँ हमारे हृदय का दिव्योत्तम श्रृंगार ही है । एक हास्य नहीँ जैसे हास्य की माला ही हो इनकी सहज मुस्कान पर ।
हम विकारित , पीड़ित , कठोर दृष्टि वाले , भव सागर के सन्ताप को भूल जाते है क्षणार्द्ध में श्री प्रभु के मुस्कान का दर्शन कर ।
सन्ताप निवृत्ति का कितना सहज उपाय है ... अपार पीड़ित जहां श्री प्रभु के श्री विग्रह की मुस्कान में अपनी पीड़ा को भूल जाता है ... वहां विशुद्ध चित्त में प्रकट दिव्य अति दिव्य श्री प्रभु के स्वरूप के पुलकित अधर दर्शन से क्या भव रोग पुनः लग सकता है ... ???
नित्य प्रफुल्लित आनन्द वर्षण करता श्रीप्रियवर का स्वरूप ही वह रूप है जिसे नयन तलाश रहें ।
रूप का आस्वादन यहीं सम्पुर्ण है , स्वरूप का सम्पुर्ण श्रृंगार भी इनके दर्शन से ही प्रकट होता है ।
इनका सँग ही रँग देता है रसप्रेमाब्धि में ...यह ही वह स्वरूप है जिनके क्षण-क्षणार्द्ध सुख को श्रीकिशोरी जू स्वयं श्रृंगारित करती रहती है । इनके स्वरूप का सम्पुर्ण प्रेमोन्मत्त दर्शन मिलता ही श्रीकिशोरी नयनों में है । यह श्रीकिशोरी जू के नयनों का दर्शन है , उनके हृदय श्रृंगार आकृतियों से नित्य नवीन रूपमय है । श्रीकिशोरी रूप दर्शन की तृषा में यह स्वयं मधुरतम रूपावली हो गये है । श्रीकिशोरी प्रेम वर्षा में नित्य भीगते प्रियतम का नित्य दर्शन ही प्रेम का प्रकट दर्शन है ,जो किशोरी जू स्वयं रचती है । किसी भी सेवक की सेवा का गान या चित्रकार के चित्र का गान उसे अधिकतम सुख देता है । श्रीप्रियतम की नित्य नवीन रूपावलियों श्रृंगाराकृति भरी यह प्रेममुद्रायें ही मेरी स्वामिनी जू की नित्य सजाई हुई रंगोलियाँ है । हम जीवों का श्रृंगार झर जाता है , या मिट ही जाता है । नित्य नवोत्सवों में सजी मेरी रंगीली नागरीजू जो रँग-रूप का प्रेम सुधा भरित श्रृंगार रचती है वह ही नव अनुरागों का समूह श्रीप्रियतम का यह श्रृंगारित रूपदर्शन ही है मेरे हृदय रूपोत्सव । श्रीकिशोरी जू का प्रियतम के सुख रस का यह अनवरत भाव महोत्सव ही तो प्रियतम सुख रूपी दीपकों की कतार है , प्रेमी मनहर के सुखार्थ रचित ऐसी सुख रूपी दीप की पंक्तियाँ ही मेरा दीपोत्सव है ।
यह शरद ऋतु यात्रा है रास से महारास की । सुख से सुखों की वर्षा की । मिलन से मिलन के नव उत्सवों की । हृदय में रूप भरती गोपी ज्यों ही नयन मुंद रही है प्रेमोन्मत्त स्वरूप को भीतर आत्मसात करती हुई त्यों कृष्णा (अमावस्या) बाहर प्रकट हो रही है । शरदचन्द्र इस अदृश्य क्षणोप्रान्त हृदय के भाव उद्दीप्त दीपकों सँग पुन: पूर्णिमा के महारास में प्रकट उन्मत्त होंगे । व्यवहारिक उत्सव के क्षण जीव भुल जाता है शरदपूर्णिमा के उन्माद को । अग्रिम पूर्णिमा को दैवीय दीपोत्सव माना जाता है , अप्राकृत दीपोत्सव । एक एक दीप दीपोत्सव पर परस्पर प्रेमित श्रीयुगल को प्राकृत हृदय भी अर्पण कर सकता है , भक्ति अनवरित अनन्य घृतधारा होने पर । यहाँ रूप दर्शन हेतु दीप अर्थात प्रकाश जो चाहिये वह भी हम है , उसमें स्नेह का घृत है ... अनुराग की वर्तिका है । एक एक दीप प्रकट करता है रूप सौंदर्य को ...सभी उत्सव प्रेम के शरणागत है । प्रेम हीन स्थिति उत्सव नहीं रहती । उत्सवों की वास्तविक क्षुधा प्रीति ही है ...समस्त उत्सव ही प्रीति की नवश्रृंगार भावकलियाँ है ।
श्री प्रभु के एक रोम कूप की शोभा सौंदर्य अणु से सम्पूर्ण ब्रह्मांडो में सौंदर्य बिखरा है ... रूप वर्षित हुआ है मात्र किसी एक अणु से झरित है ,शेष समस्त रूप । ...सो प्राकृत कोई उपमा कोई गति-मति तो एक रोम कूप तक कल्पना नहीँ कर सकती , फिर कृपावर्षा से विशुद्ध चित्त में प्रकट श्री स्वरूप की सहज सौंदर्य प्रभा ... अहा श्री प्रभु के दर्शन उपरान्त कैसे दृष्टा भाव भी रह सकता है ... देखने वाला तो पूर्णतः डूब ही गया ...रूपलालसा से अभिन्नत्व ही यहाँ प्रेमलालसा हो बढती है (प्रेम यहाँ रूप लालसा से निजस्वरूप की अमावस्या से पूर्णिमा तक गई षोडशकला है शुक्लपक्ष की) वहाँ पूर्णिमा पर यह रूप लालसा स्वयं सम्पुर्ण षोडशा पूर्णिमा किशोरी हो जाती है । हम केवल यह रस-यात्रारूपी सँग है ...मिलन तो केवल प्रियाप्रियतम स्वयं है ।
रूप लालसा...नेत्रों को युगों से जिस सुधा का पान करना था उनका साफल्य सिद्ध होने तो श्री प्रभु मुखारविन्द पर अटक जाने पर है ।
यह श्यामघन सौ करोड़ गुणित श्यामल राशि रूप श्री प्रभु के ललाट पर कस्तूरी और चंदन ऐसे मिले हुए है । जैसे इस श्याम मेघ में जो विद्युत तरंगें थी वह थिर गई । स्थिर हो गई । ललाट पर दो लकीर रूप में ...
ऐसा स्वरूप जहां अलकावली जब लहराती अधरों तक आती तो श्यामल नीलिमा से अधरों की अरुणिमा से अरुणिम हो उठती ।
अरुणिम अधर सार केंद्र है सोर्न्दर्य सुधा का ... सुकोमल अरुणिम अधरों की अरुणिमा दन्त पंक्तियों पर गिरती है ... दन्त पंक्ति अर्थात कोटि गुणित मुक्तावलि में स्फटिक के कोटि गुणित सार तत्व को छान कर सौ बार छान जाए ऐसी दीप्ती दन्त पंक्तियों की ...
स्फटिक पर अरुणिम पुष्प से स्फटिक में अरुणिम प्रभा छलक पड़ती हो ऐसा यह मुक्तावली अधर दल द्वय सँग अरुणिम रँगित हो रही है । और अधरदल दन्तपंक्ति सँग से स्फटिक प्रभा से अपार अकल्पनीय प्रभाओं से चमक रहे है ।
कामाग्नि में सन्तप्त हम भोगियों को श्री स्वरूप के श्रंगार और सौंदर्य का दर्शन मनन करना चाहिये । और यह स्वरूप किसी उपमा से सहज प्रकाशित नहीँ है ... उपमाएँ तो मन को एक आभास देने मात्र के लिये है । चन्द्र से इनकी उपमा है ... परन्तु एक चन्द्र से नहीँ कोटि गुणित चंद्र राशि का सरोवर ... जी, ऐसा सरोवर जिसमें जल का अणु-अणु स्वयं चन्द्र ही हो ऐसे चन्द्र सरोवर के सार को सौ बार छानने पर जो ज्योत्स्ना प्राप्त हो वह अकथनीय ज्योत्स्ना श्री चन्द्र मुखारविन्द से सहज बरसती रहती है । प्राकृत भव में क्या है जो उन्हें प्रकट कर सकें ... जहाँ भी सौंदर्य की परिधि आप हम पाते उसके सौ करोड़ गुणित सार तत्व से सहज झरित यह श्री स्वरूप है ।
शेष किशोरी चरणरज लालसा से निकुंज बिहारित प्रियतम का नवानुराग स्वयं किशोरीचरण कृपा से ही खिल पाता है । स्वामिनी जू की दासी ही स्वामी श्रीलाल की निकटतम सेवाऐं है , श्रीकिशोरी ही सम्पुर्ण प्रियतम की प्रेमावलि पूर्णतम-रूपसेवा है ...श्रयते इति श्री । परस्पर रूपविश्राम पाते मेरेश्रीयुगलचकोरचन्द्र प्रियालालजू... हे किशोरीनयन-सुधा प्यारे... तृषित-तृषा सँग मैं तृष्णा... ।जयजय श्रीश्यामाश्याम । सँग उत्सवित होने हेतु आभार ।
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