कहूँ दिखै ह्वे प्रेम , तृषित
कहूँ दिखै ह्वे प्रेम ??
प्रेम ... यह वह निरुपम दिव्य पदार्थ है जिसका दर्शन सम्भव नहीं । जब यह है तब तो कदापि यह घोषणा करता ही नहीं कि मैं यहाँ हूँ ...
प्रेम ! आज प्रदर्शनवादी यूग है , चहुँ ओर प्रचुर अभिनय है , इतना अभिनय कि हममें किसी अभिनेता को पता ही नहीं रहता कि कब वह यथार्थ या मौलिक है , कब अभिनय कर रहा है ।
मनुष्य ने अभिनय रूपी सभी पाठ पढ लिये है , प्रत्येक विकसित मनुष्य-आकृति अपनी सम्पुर्ण अभिव्यक्ति को प्रकट करने हेतु दिखाई देता भी है कि वह प्रेमी है । क्योंकि प्रेम बिना समस्त भावनाएं मृत है , प्रेम प्राण तत्व है परन्तु मनुष्य के कृत्रिम व्यवहार प्रेम-प्राणित ना होकर प्रेमाभासित होते है । प्रेम जिसे हम सभी प्रस्तूत करते ,क्या वह स्वयं हमें छू पाता है ???
प्रेम अनिवर्चनिय है , शब्द नहीं रहते प्रेम की परिभाषा में शास्त्र के पास । क्योंकि शब्दों में अर्थ है और प्रेम केवल अर्थ भर नहीं ।
वस्तुत: हम सभी जता रहे कि वह प्रेमी , मैं महाप्रेमी ,यह अतिप्रेमी... परन्तु प्रेम जहाँ भी प्रकट होता है उसका स्पर्श अति संकोची होता है । वह स्वयं कह भी नहीं पाता कि वह है । प्रेम अनुभव का दर्शन या उसका विज्ञान नहीं है । प्रेम स्वयं बासन्ती शरद है जिसमें वर्षा की बूंदों की मधु छुअन भी है । प्रेम कालातित है , सो प्रेम ऋतुओं का भिक्षुक नहीं है अपितु उन्हें उनकी वांछित रसपुष्टि देता है । प्रेम सर्व रस और आनन्दों का एक क्षण में उठा उन्माद है जबकि अनुभव सभी रसों का संयुक्त रूप हो भी जावें तब भी हम क्रमिक ही उनका चिन्तन कर सकेंगे । प्रेम रसों का व्यंजन है , व्यंजन भी ऐसा जिसमें सभी रस है और सभी रस भी नव है और सामुहिक यह सर्व व्यंजनों का स्वाद जैसे अकथनीय स्वाद है वैसा ही प्रेम भावों का सम्पुर्ण क्षण क्षण है । एक लहर दुसरी लहर को कहने हेतु रुक जाएगी तो स्वयं अस्तित्व खो देगी । वैसे ही प्रेम का क्षण क्षण अनुभव है परन्तु अभिव्यक्त नहीं है क्योंकि प्रेम का अनुभव नित्य सघनोत्तर सघन है सो प्रेम केवल अनुभवोतर अनुभव है । आप - मैं ..हम दो गलती कर रहें , एक यह कि उसे दिखाना चाह रहें स्वयं में । दुसरी यह कि उसे प्राकृत चक्षुओं से खोज रहे जबकि वह अप्राकृत नित्य अव्यक्त ही नहीं अभिव्यक्तिशून्य नित्य अनुभव है । प्रेम कदापि यह नही कहता कि वह आ गया है , उसे देखो... पूजो । वह बस रसभोक्ता स्थिति है , प्रेम का पठन होता है उसी के शब्दों से । वह दिखता भी है तो अपने ही नयनों से । प्रेम के स्वरूप को उसी का स्वभाव देख सकता है और यह स्वभाव ही प्रेम का सम्पुर्ण वह स्वरूप है जिसके हेतु प्रेम तृषित है ...निज स्वभाव स्वरूप का यह खेल ही प्रेम है । प्रेम स्वयं ही पूर्ण है बाह्य प्रपंच में वह जाता ही नहीं है , प्रेम को उसी का रूप देख सकता है । प्रेम एक जीवन रस का द्वेत हो जाना है ,यह हम जानते है परन्तु मानने पर यह स्थिति हमें प्रेमानुभव से मुक्त होने ना दे । प्रेम का अनुभव कभी मुक्त होता नही और किसी विद्या की परतन्त्रता में प्रेम आता नहीं, विद्याओं से बाहर आज का जीव कभी जाता भी नहीं सो प्रेम को वह कोई पाठ्यक्रम समझता है अत: प्राकृत चक्षु से प्रेमी खोजा जाता है इस खोज की माँग से बाजार सजते है और अभिनय होता है प्रेमाभास का कि ...मैं हूँ प्रेमी । पतंग को जानना है तो डोर चाहिये , डोर को जानना है तो पतंग । पतंग से पुछे तू कौन वह अपनी महिमा बिना डोर के कह नही सकती ...डोर सँग उसका जीवन ही उसकी अकथनीय महिमा है । ऐसे एक जीवन रस जब दो आकृतियों में होता है तब वह परस्पर ही प्राणित होती रहती है और जब भी स्व को कहती है तब प्रेमास्पद को ही कहती है , आप तनिक ध्यान दे तो पावेन्गे आज जीव सदा स्वयं को ही कहता है ...अपना प्रेमास्पद वह स्वयं ही है । प्रेमास्पद हेतु डूबे जीवन के सम्पर्क में आने पर उन्हीं प्रेमास्पद का अनुभव होता जाता है और उन्हीं का सँग होता है , अर्थात दूध पुष्टि देता है , उस गाय को बहुत गायों मे हम नहीं पहचान सकते जिसका दूध पी चुके क्योंकि उस दूध में अपनी पृथक पहचान नहीं छोडी गई ...समूची गौ ही वहाँ वह पयोधारा दात्रि रूप होती है । प्रेमी चित्रकार को अपना नाम लिखना नहीं होता वह चित्र ही उसका नाम होता है ,उस चित्र को देखकर चित्रकार को कोई तब ही पहचान सकता है जब वहाँ प्रेम से पृथक कोई और वाँछा भी हो । प्रेम का वितरण प्रेम ही है सो प्रेम ही प्रेम को वितरित करें , प्रपंच जब वितरण करता है तब प्रेम का आडम्बर होने पर भी वास्तविकता में वहाँ प्राण नहीं होता खिलौना और जीवन दोनों में यह ही भेद है , खिलौना जीवन नहीं सकता परन्तु जीवन खेल खिलौने देता रहता है सो प्रेम प्रपंच भी वितरित करे तब भी बरसता प्रेम है , प्रपंच के मूल में प्रेम नहीं सो उसके वितरण में प्रपंच ही है ...हम प्रपंची जितने उतावले प्रेम के वितरण के है उतना ही प्रेम संकोची है और स्वयं को प्रपंच में सिद्ध करना चाह रहा है (प्रेम का यह प्रपंच ही अप्राकृत लीला हो जाता है)। प्रेम की पहचान केवल प्रेम है । सो अप्रेमी तो प्रेम को पहचान ही नहीं सकता है । जैसे जगत में उपलब्धियों को नाम परिचय में जोडा जाता है , वैसे ही प्रेम कभी भी प्रस्तुतियों में नही होता है । प्रेम जहाँ है ...वहाँ छिपा है , सो...जो कोई उसे खोजने जाता है , एक तो वह खोज सब भुला देती है दुसरी वह खोजी ही छिप जाता है । प्रेम नित्य - अप्राकृत - दिव्य है ।
जगत की प्रतिस्पर्धाओं में सबसे दीन-निर्बल है वह । प्रतिक्रियाओं में भी वह मौन है क्योंकि वह जहाँ है वहाँ से केवल विलास-उत्सव में नाच रहा है । नित्य ही नृत्योन्मादित है प्रेम... ...अभिव्यक्तियों से सर्वथा परे भावसुधाओं का अनन्त नित्य-अनुभव है प्रेम । अनुभव स्वयं को कहे तब वह अभिव्यक्ति है ..और अभिव्यक्ति नही है प्रेम ...अनुभव सुख प्रेमास्पद का ...स्वयं में अभिन्न प्रेमास्पद का जीवनरस। तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी (अभिन्नता है प्रेम)
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