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Showing posts from May, 2021

ललित अर्थात् , तृषित

*ललित अर्थात्* मधुरतम परस्पर प्रेमासक्त सम्पूर्णताएँ जब और नवीन उत्साह-उत्सव-उन्माद प्राप्त करती है तो वह "ललित" है । ... यह मधुर प्रेमोत्सव की बीज और परिणाम माधुरी है । सामान्य जीवन "ललित" इसलिये नहीं समझ सकते क्योंकि वह मृत्यु के पथिक है और "ललित" नित्य नवीनता का प्रस्फुटन-विस्तरण- गहनोत्तर गहन उन्माद विलास ।  ललित अर्थात् और सुभग ...और सुन्दर ...और मधुर ...और कोमल ...और निर्मल ...और शीतल ...और प्रकम्पन भरित मधुरतम लीला-उत्सव । कोई जीवन जब भी सहजतम ललित स्पर्श या सँग पाकर उत्सवित हुआ होगा तो वह और नवीन श्रृंगार उपचारों सँग जिस धरा पर टपक रहा होगा वह सुरभिनि भावधरा "लीला" है ...सो जीवन उत्सव मात्र "ललित" नहीं होता , नित सुमधुर प्राण का निजतम कोमल लज्जित प्राण में विलसन अर्थात् लीला उत्सव ही "ललित" है । लीला अर्थात् नित प्रेम कौतुक का सहजतम उल्लास ... ...रसिला प्रवाह ...लास्यमयी ललित - पुलकन -प्रफुल्लन । उमड़ते रससुधा चेतनाओं का विलास अगर बिन्दु चेतन जो कि शुष्क भी हो रहा हो समझ सकें तो वह समझ रहा है ...लीला ।  रस का और सघन मधु...

समर (प्रपञ्च और मधु) , तृषित

*समर (प्रपञ्च और मधु)* इष्ट शून्य मण्डल को सादर नमन ।।।               वर्तमान जीव दशा ऐसे रोगों में लिप्त है कि उन्हें इन रोगों से छूटना ही नहीं है ।  अनन्त बद्ध और प्रपञ्च चिंतन में घर्षित चेतनाएँ क्षणार्द्ध उज्ज्वल मधुर चिंतन का सँग विशुद्ध लालसा से नहीं कर पा रही ।  प्रपञ्च के गुण और दोष में भीगी असक्तियाँ , किन्हीं मधुर मण्डलों का रँग और सँग वहन ही नहीं कर पा रही ।  फिर इन विकृत भोग दशाओं में बद्ध जीव-जीव को परस्पर धर्मात्मा या महात्मा भी दिखना है अर्थात् सेवा भक्ति दोषों की और वस्त्र अलंकार गुणों के । यह दर्शन लालसा कहीं न कहीं सत्य की लालसा को अनिवार्य प्रकट करती है । जीव मात्र नमित भलें ना हो पा रहा हो , परन्तु अपने प्रति नमस्कार का सृजन कर ही रहा होता है और नमः तत्व का सम्बन्ध प्रकट करता है , श्रीपुरुषोत्तम (इष्ट) की आवश्यकता ।  वास्तविक धर्म या रस पथिक को यह आत्म-प्रदर्शन तत्व ही समझ नहीं आता है । वह अपनी मौज और उल्लास में निहित जीवन है परन्तु भुक्त रोगियों को यह उल्लास ही प्रपञ्च सदृश्य अनुभव हो सकता है ।  लालसा ...

लीला दर्शन , तृषित

मैं लीला दर्शन उसे मानता हूं जब आप स्वयं को समेट लें , छिपा लें परन्तु वह ललित सरस लीला रूपी वर्षा घुमड़ती ही रहें । आप भीतर भी  नयन मूंद लें और सहज ब्यार से खुलें पर्दे की तरह अन्तस् देखता रहें । आप गलित हो और वह ललित हो । आप नमित हो और वह वर्षित हो । आपने स्वयं को इतनी मधुता से छिपाया हो और वह आपकी गोद से उतर ना रही हो । ज्यों माँ नहीं चाहती कि उसका शिशु ना रोवें त्यों सहजतम दशा नहीं चाहती कि लीला पुहुप ( फूल ) झरें  ... पर वह झरे और आप रोक ना सको । जब कोई स्वयं को प्रकट करें और किसी बलात् धक्का लगा कर प्रकट कर दिया जावें दोनों दशाओं में बहुत भेद होगा । युगल तृषित ।  कथित मनुष्यों को छोड़िये गिलहरी और तितलियों से पूछियेगा लीला में कैसे रहा जाता है ।

नवबाल पुहुपोत्सव वृन्द रेणु रेणु

*नवबाल पुहुपोत्सव वृन्द रेणु रेणु* https://youtu.be/XQT6n6vbyI0 आपने सम्भवतः यह पूर्ण भाव सुना ना हो , तनिक मनन कीजिये ।  *कलि कलि आ गई है स्वरूपों पर उत्सवों का और प्रबल होता उन्माद । मिलती यह दो लताएं अब यूँ मिलेंगी ...हाँ री इनके पुहुप उलझेंगे । कलि के हृदय में उठा विलास का बिहाग उसे उत्सवित और पुलकित करता हुआ खिलता जावेगा और वह नवबाल पुहुपाती सी हो उठेंगी ... फूल ...और और उन्मादित पुष्प । तब भी वह रोमावलियों का डोल उत्सव कहाँ थमेगा , तुम इस पुहुपाईं की लज्जा अपने में भर पलकों की बौरनियों से बस हिय में भरो तो जब निहारोगी पाओगी और खिल उठा यह प्रेम पुहुप । पुष्प अभी उत्सव मनाना सीखा ही तो है और बढ़ रही उसकी पँखुड़ी-पँखुड़ी और आती हुई मधुभोगी अलियों से लजाकर उन्हें कहता यह पुहुप कि अभी नहीं अलि री और पुलकनें भीतर आ रही है ...मधुपान हेत ठहरो ना   शीघ्रता कहाँ है ...और इन पुलकनों से लहराते सुरभता के घन से विवश हुए आएं भँवर । ... ना करिये ना यह भृंगन अभी सुगन्धें धीमे धीमे बस टपकना ही चाहती ब्यार में । हिय रोग को थामे व्यसनी भृमर कैसे सँग करें कि ना करें बस उसका वर्द्धित नलिन र...

कौन खेलें प्रेम - तृषित

*कौन खेलें प्रेम* प्रेम को कहा या बताया या अभिव्यक्त क्यों नहीं किया जा सकता क्योंकि वह जहाँ जैसा बताया जा चुका होगा वहाँ से उड़ सकता है । जैसे कहुँ कि प्रेम में आलस्य है , वह काल मर्यादित नही रह सकता तो प्रेम में ही तो प्रतिक्षा और प्रेम में ही अतिव व्यग्रता भी है । प्रेमी-साधकों को प्रेम के गोपन रसों को रसिकों के जीवन या सिद्धांतों से चुराना आना चाहिये । क्योंकि वह प्रकट किए जाते है तब तक प्रेम विपरीत धर्म अपना ही लेता है क्योंकि प्रेम तो जानकर पहना हुआ आभूषण नहीं है । इधर चलो प्रेम मिलेगा ऐसा कहा ही नहीं जा सकता क्योंकि सम्भव है वह किसी सोये हुए को भी मिल गया हो , परन्तु प्रेम को संक्रमण या चोरी से पाया जा सकता है लेकिन प्रेम के पाठ को याद कर नहीं प्राप्त हो सकता , कहा जावें इन्हें देखो , पूर्व में जिन्होंने देखा उनकी यह प्रेम दशा हुई है तो वहाँ वह दर्शन भीतर से खुलें नहीं होने से बरसने पर भी भरते नहीं भरेंगे । अगर पात्र रिक्त और प्यासा हो तो वह प्रेम की बिन्दु - बिन्दु खोज-खोज कर झुम-झुम लहराना चाहता है । परन्तु प्रायः हृदय गत रिक्तता और नवेली तृषा यह दोनों ही लुप्त लताएं हो चुकी हो...

कौन खेलें प्रेम , तृषित

*कौन खेलें प्रेम* प्रेम को कहा या बताया या अभिव्यक्त क्यों नहीं किया जा सकता क्योंकि वह जहाँ जैसा बताया जा चुका होगा वहाँ से उड़ सकता है । जैसे कहुँ कि प्रेम में आलस्य है , वह काल मर्यादित नही रह सकता तो प्रेम में ही तो प्रतिक्षा और प्रेम में ही अतिव व्यग्रता भी है । प्रेमी-साधकों को प्रेम के गोपन रसों को रसिकों के जीवन या सिद्धांतों से चुराना आना चाहिये । क्योंकि वह प्रकट किए जाते है तब तक प्रेम विपरीत धर्म अपना ही लेता है क्योंकि प्रेम तो जानकर पहना हुआ आभूषण नहीं है । इधर चलो प्रेम मिलेगा ऐसा कहा ही नहीं जा सकता क्योंकि सम्भव है वह किसी सोये हुए को भी मिल गया हो , परन्तु प्रेम को संक्रमण या चोरी से पाया जा सकता है लेकिन प्रेम के पाठ को याद कर नहीं प्राप्त हो सकता , कहा जावें इन्हें देखो , पूर्व में जिन्होंने देखा उनकी यह प्रेम दशा हुई है तो वहाँ वह दर्शन भीतर से खुलें नहीं होने से बरसने पर भी भरते नहीं भरेंगे । अगर पात्र रिक्त और प्यासा हो तो वह प्रेम की बिन्दु - बिन्दु खोज-खोज कर झुम-झुम लहराना चाहता है । परन्तु प्रायः हृदय गत रिक्तता और नवेली तृषा यह दोनों ही लुप्त लताएं हो चुकी हो...

वेणी श्रृंगार , श्रीक जू ।

Please Do Not Share आजु ... आज नवेली श्रीप्रिया किस भावना में तल्लीन ...  ग्रीवा झूकि सी ...  विशाल नयन सरोवर अर्द्धमुँदी ... रसिकनी की रस भरी लोचन में अथाह उमंग ... सुरत विलास की थकित श्रमित चिह्न गौरांगी को रसिक रस रँगीली  कर तनिक लज्जा की पटाभरण ओढ़ा दी है । अपलक नेत्र से अपने ही सुदीर्घ वेणी को निहार रही ... स्निग्ध चिक्कन ... सखी की कसी हुई गूँथन अब शिथिल ... कुछ लट उरझ गये है झूमका की बूंदी में ...  वह निहारती रही वेणी की ओर ...  और सघन श्यामल होती गयी वेणी... प्राण वल्लभ प्रतीत हो रहे थे और उनकी मानने से .. निकट बैठे हुये भीगी पर्यंक पर रसिक प्रियतम पुलकित हो उठे.... उन्हें और एक अवसर ...एक सादर निमंत्रण मिला ... ... ... उनके आतुर नयन वेणी जू के मूल से परिक्रमा करते रुक गए अपने प्राण पोषिनी के झूमती झूमका के पास... श्रीप्रिया के कर्ण जो भी रसासव पिये  ... अपने रस नागर के नामामृत ... गूंजने लगा ... और यह शीतल झोंका से ठिठुरने लगे... बिहारी जू ...ललितनागर जू ।  घूमती हुई वेणी रस वर्षिणी के अधर दल स्पर्श कर.. आह री ... अब तो बाँवरे प्यारे अधर रस सु...

भाव यात्राएँ , तृषित

भाव साधना देह के अध्यास से छूटने पर उत्सवित होती है और यही साधनाएं स्वयं ही आवरण भँग लीलाएँ भी रचित कर कल्पित परिधियों को अपरिमित रस भावना में भीगो देती है ।  जितनी भी स्त्री देह की रस साधक है इनके स्वभाव जब प्रकट होगें उसमें प्रियतम के आवेश बढेंगे । और दशा सखी है तब भी प्रियतम सुख के स्वभाव बढेंगे परन्तु वह यह प्रकट नहीं कर सकती क्योंकि अति मनहर दशाओं को इस देह से कहीं प्रकट में नहीं खेला जा सकता है ।  एक बार प्रियतम आवेश सघन बढ़कर पुनः नायिका (स्त्रैण रँग रस) लौट सकते है । यह विवर्त चलता ही रहता है । अगर स्त्री देह की साधिका मौन भी हो गई है तब भी उसके भीतर श्री प्रियतम के सुख या मुद्रा आदि स्फुरित होते रह्वेगे ।  दैहिक सौभाग्य से श्री प्रिया का सँग सरल लग सकता है परन्तु श्रीप्रियतम का यह रस संक्रमण मण्डल क्षेत्र पार करने पर ही श्री ललित प्रिया का प्रभा मण्डल सुरभित रहेगा ।  अर्थात् अगर आप सहज है तो दशाएँ परावर्तित होती रहेगी । आपके जिनके सन्मुख हो उनकी ही प्रतिबिम्ब हो । विशुद्ध हरिदासी में श्रीयुगल का संयोग रस नित्य ही बिम्बित होता है । अर्थात् वहाँ जुगल सरकार की ह...