समर (प्रपञ्च और मधु) , तृषित

*समर (प्रपञ्च और मधु)*

इष्ट शून्य मण्डल को सादर नमन ।।।          
    वर्तमान जीव दशा ऐसे रोगों में लिप्त है कि उन्हें इन रोगों से छूटना ही नहीं है । 
अनन्त बद्ध और प्रपञ्च चिंतन में घर्षित चेतनाएँ क्षणार्द्ध उज्ज्वल मधुर चिंतन का सँग विशुद्ध लालसा से नहीं कर पा रही । 
प्रपञ्च के गुण और दोष में भीगी असक्तियाँ , किन्हीं मधुर मण्डलों का रँग और सँग वहन ही नहीं कर पा रही । 
फिर इन विकृत भोग दशाओं में बद्ध जीव-जीव को परस्पर धर्मात्मा या महात्मा भी दिखना है अर्थात् सेवा भक्ति दोषों की और वस्त्र अलंकार गुणों के । यह दर्शन लालसा कहीं न कहीं सत्य की लालसा को अनिवार्य प्रकट करती है । जीव मात्र नमित भलें ना हो पा रहा हो , परन्तु अपने प्रति नमस्कार का सृजन कर ही रहा होता है और नमः तत्व का सम्बन्ध प्रकट करता है , श्रीपुरुषोत्तम (इष्ट) की आवश्यकता । 
वास्तविक धर्म या रस पथिक को यह आत्म-प्रदर्शन तत्व ही समझ नहीं आता है । वह अपनी मौज और उल्लास में निहित जीवन है परन्तु भुक्त रोगियों को यह उल्लास ही प्रपञ्च सदृश्य अनुभव हो सकता है । 
लालसा - शरणागति - क्रमिक गति से नित्योत्सवित होती ही है  और जीव जो आनन्द खोज रहा ... नित नवीन सँग या नित नवीन पदार्थ में , वह सिद्ध महत् पुरुषों का उत्सवित - उल्लास दूर से अनुभव कर यूँ संतप्त होता है जैसे आधुनिक उछलकूद भरें नाच गाने (रीमिक्स प्रिय) वाले युवा को किसी मधुर कोयल या घन गर्जन से आपत्तियां हो जावें । 
परम्परागत विकृत - पतित और भोग की बढ़ती हुई देखा-देखी लालसा ने वर्तमान जीव को पशुओं से निकृष्टतम करने प्रयास रच ही दिया है , इस पाश्चात्य विकार का लक्ष्य मानव-मानव को मानवता शून्य कर देना मात्र है और ध्यान से देखने पर पक्षी या पशुओं में भी कोई न कोई विशेष गुण निहित हो सकता है जैसे श्वान का गन्ध विश्लेषण । परन्तु भोगों में भीगी हुई मानव की इन्द्रियाँ तेज शून्य होकर पतन मार्गों पर उसे लें जाती है जो कि पशुओं से भी निम्न जीवन है ।
जीव मात्र की अपनी दुर्गति भी उसे संतप्त नहीं करती और मलिन संस्कारों से उसे पीड़ित करती है ...किन्हीं निर्मल गोप्य मार्गों के सिद्ध या साधकों के शोध क्षेत्र में निहित उल्लास सोपानों की वर्षा । अपने रोग से छुटने की इच्छा हीनता और व्याप्त सौन्दर्य या मधु श्रृंगार से यह आपत्तियाँ ... पुष्प वर्षाओं की सारँगित अदृश्य शीतल तरँगों की घुमड़न को विचलित नहीं कर पाती अपितु लालसा और शरण हीनता से प्राप्त स्व रचित मलिन प्रपञ्च का अनुभव ही प्रकाशित करती है ।
सम्भव है यहाँ तक की वार्ता सामान्य दशा ना समझें परन्तु उन्हें समझना ही होगा कि एक चन्द्र प्रकाशित होकर रस या मधुरता की ओर लें जा रहा होता तो बहुत मार्गों के बहुत से कृत्रिम प्रकाश कर्षित करते इन पुहुप (फूल) रसिकों (भृमरियों) को । सभी सहज पथिक यह अनुभव करते है कि उसके चहूँ ओर यह वातावरण रहता है  जैसे कथित आत्मजन उसे प्रपञ्च रूपी कड़ाई में भोगों के तेल में उबलते देखकर ही सुखी होगें और अध्यात्म या भक्ति मार्गों के निन्दक सर्वत्र प्रकट भयभीत हुए बिना अपना शोक गीत गाकर जीव को बन्धनों में बाँधे ही रखती ...इन बन्धनों को नमन कि जिन्होंने भी इन्हें खण्डित किया वह प्रेम की अमरकथा होकर श्रीहरि का सुख प्रवाह हो ... झूम गया । वर्तमान प्रकट लीला की इस लालसा रूपी अवधि श्रृंगार उत्सव के मध्य एक ही मन्थरा मात्र नहीं है । और भरत सी दृष्टि या लालसा शून्य हम कथित भारत या भारतीय , जिनमें विवेक ही नहीं ... जो भरत सम निज रसब्रह्म सँग से विछोह करा देने वाली निज जननी का सँग सहज त्याग सकते हो । रस प्रकाश या रस सँग की उपेक्षाएँ इष्ट अथवा प्रेमास्पद के प्रकट सुमार्ग की पुनः - पुनः उपेक्षा मात्र है और वर्तमान प्रपञ्च का सँग अपने ही प्रेमास्पद के मार्ग को आघात भी कराने लगता है , ऐसे में जीव उत्थान से पतित हो अधर्म द्वारा रचित एक भयानक असुर लोक में  प्राणी-प्राणी को अनुभव कराता है अनन्त रावण - कंस का सँग या मंचन । क्योंकि जीवन लीला का पट खुलता है शरणार्थ - उत्थानार्थ और वहीं जीवन सदैव अनुभव करते है ललित नित्य धाम सौंदर्य प्रकाश का । ऐसा ललित प्रकाश जिसमें भिन्न-भिन्न रस रँग का  मकरन्दित अभिसार महाभावित कर रहा हो , रसिक या सिद्ध सँग प्राप्त प्रेम पिपासुओं का जीवन सिद्ध अनुभव है ही कि वह सर्वत्र परमत्व का दृष्टा मात्र ही नहीं , श्रृंगार उत्सव अनुभव पान करते और कराते है । ऐसे जीवन प्रपञ्च के काँटो को अतिव सहजता से निज प्रेम का गीत बनाकर और मधुरित होते मुग्ध रहते है ... जिसे यह निंदा मण्डल किसी प्रेमी या सिद्ध की पराजय समझता रहता है  ...परन्तु अनुभव कीजिये , जीवन के अनन्त नकरात्मक बन्धनों की वह पुनः - पुनः आक्रमित अमर्यादित धृष्टताएँ त्यों ही रस मार्ग या धार्मिक सौन्दर्य को भी इष्ट-लालसा में विवश होकर सीत-सीत (अप्रकट निभृत सारङ्ग रेखाँकन) का उपासी-सेवी रहकर भी मूसलाधार अनुरागों का गलित श्रृंगार झारना ही होगा । युगल तृषित । आराधना तो वेद ने की है कि उनकी श्रीराधा अभिसारित होकर भी बाह्य नहीं हुई है ... पूछिये किसी सागर से उसके आह्लाद का रहस्य क्योंकि कोई सागर यूँ ही लहराता नहीं ... ।। जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

Comments

Popular posts from this blog

Ishq ke saat mukaam इश्क के 7 मुक़ाम

श्रित कमला कुच मण्डल ऐ , तृषित

श्री राधा परिचय