भाव यात्राएँ , तृषित

भाव साधना देह के अध्यास से छूटने पर उत्सवित होती है और यही साधनाएं स्वयं ही आवरण भँग लीलाएँ भी रचित कर कल्पित परिधियों को अपरिमित रस भावना में भीगो देती है । 

जितनी भी स्त्री देह की रस साधक है इनके स्वभाव जब प्रकट होगें उसमें प्रियतम के आवेश बढेंगे । और दशा सखी है तब भी प्रियतम सुख के स्वभाव बढेंगे परन्तु वह यह प्रकट नहीं कर सकती क्योंकि अति मनहर दशाओं को इस देह से कहीं प्रकट में नहीं खेला जा सकता है । 
एक बार प्रियतम आवेश सघन बढ़कर पुनः नायिका (स्त्रैण रँग रस) लौट सकते है । यह विवर्त चलता ही रहता है । अगर स्त्री देह की साधिका मौन भी हो गई है तब भी उसके भीतर श्री प्रियतम के सुख या मुद्रा आदि स्फुरित होते रह्वेगे ।  दैहिक सौभाग्य से श्री प्रिया का सँग सरल लग सकता है परन्तु श्रीप्रियतम का यह रस संक्रमण मण्डल क्षेत्र पार करने पर ही श्री ललित प्रिया का प्रभा मण्डल सुरभित रहेगा । 
अर्थात् अगर आप सहज है तो दशाएँ परावर्तित होती रहेगी । आपके जिनके सन्मुख हो उनकी ही प्रतिबिम्ब हो ।
विशुद्ध हरिदासी में श्रीयुगल का संयोग रस नित्य ही बिम्बित होता है । अर्थात् वहाँ जुगल सरकार की ही भोगसेवा उभय रहती है ।

भावना में जब श्री नागर इन नागरियों का रस भोग स्वीकार करते उसके उपरान्त दो दशा बनती है एक यह कि स्त्रैण की परिधि छूट जाती है क्योंकि वह धारित ही नागर रसभोग हेत है और दूसरी यह कि वह श्रीनागर जू के पूर्ण आस्वादन होने पर एक अतिव निर्मल अवस्था रह जाती जिसे बाहर से निभाने पर ऐसा लगता जैसे भीतर वधुता बढ़ गई हो परन्तु वह श्री नागर संस्पर्श के गलित परमाणुओं का विस्फोटन ही होता है और इस दशा में ही श्री महाभाव मुद्राएं प्रकट हो पाती है । वह दशा जब स्वयं का चिंतन करें तो उसे श्री नागर के ललित कौतुक ही अनुभवित होते है और उनकी नव नव ललित संस्मृतियों से भीतर श्रीप्रिया रूपी लता वर्द्धन होता जाता है जबकि सामान्य स्त्रैण झर चुका होता है और यह दशा स्त्रैण का विकास नहीं है अपितु श्रीनागर के प्रेम उत्सव का विकास ही श्रीप्रिया  आभरण है । (श्रीप्रिया भावांकन में भरित यह दशा केवल श्रीनागर की प्रीति की देन है ) और इस दशा के उपरान्त श्रीनागर द्वारा प्रतिष्ठापित श्रीमहाभाव श्रीललितश्रीप्रिया भरित यह दशाएँ जब श्रीनागर को निकुँजेश्वरी स्वामिनी के सेवा सोपानों में लास्यवत गतिमय पाती है तो अनुभव होती है प्रेममूलनि कृष्णस्फुरिणी नित्य केलिरागित श्रीराधिका और शेष श्रीराधा महाभावनाएँ अब सहज ही श्रीकृष्ण माधुर्य सेविका होने से यात्रा करती है अनुराधिका हो जाने की । अर्थात् उनकी प्रत्येक श्रीप्रिया मान्यता जब अपने भीतर रस श्रृंगार की अधीश्वरी के आगे शरणागति कर दें तब वें मञ्जरी या किंकरी पथ पर होती है अर्थात् सभी श्रीप्रिया किंकरियाँ कभी श्रीराधा आवेश में रही थी और उसी ब्यार का रँग जहाँ से आया , वहां उनकी दासी हो गई है । जब तक सहज श्रीललित नागरी प्यारी श्रीप्रिया नहीं दर्शित हो तब तक वह दशा स्वयं प्रियावती रह सकती है और तब श्रीप्रियतम ही लालसा कर रचना करेगें मुख्य अनुराग बिन्दु तक लें जाने के लिये । यहाँ इस यात्रा का कोई आभरण छूटता नही है श्रीप्रिया की ही केलि झँकन-रसाभिसार आदि उनकी सेविकाएँ है तदपि अब यात्रा विवर्त से है अर्थात् उनकी झरित किंकरियों को योगमाया ने विस्मृति कराकर ही उनके भीतर श्रीप्रिया तत्व का रसभोग श्रीनागर को निवेदित करने हेतु मात्र यह विस्मृति की है और आगे यह दशा पुनः श्री प्रिया सुमन या मञ्जरी होकर स्वयं को अनुभव कर लेती है ।

किसी दशा का भोग्य कालखण्ड क्षणिक या कल्प तक हो सकता है परन्तु यात्रा मूल दम्पति के सुखों में चहुं ओर से उत्सवित होकर समावेश की ही है । भोग तत्व के श्रीदम्पति में ही निवेदित होने पर यह आयोजन केवल स्वप्न अथवा निमिष भर भी घटित हो सकते है और भोग्य रस का स्वयं में ही विराजित दम्पति को निवेदन होने पर यह यात्रा बहुत क्षणिक गतिमया हो सकती है ।

यह सभी दशाएँ नवीन ललित होने से एक रस या मुद्रा में नहीं ठहरती है अपितु अलि (सहचरी) दशा के भीतर भी विराजे दम्पति में निकुँज लीला की उमंग भर सकती है और उन दोनों को (दम्पति) को हिय में रखने का अर्थ एक दशा में ही दोनों की दशाओं में होना हुआ । ऐसी दशाओं में दोनों के मुद्रा विलास इन अलि (सहचरियों) में प्रकट हो सकती है और यही दशाएँ आचार्य वाणियाँ पिला रही है जैसा कि श्रीहित चतुरासी जू । यहाँ प्रथम जीव भावना उठने के लिए श्रीकृष्ण मधुर रस की लालसा उठे जैसा कि गोपी गीत - वेणु गीत या श्रीकृष्णकर्णामृतं आदि । इनमें श्रीप्राणप्रियतम वत ... मेरे प्रियतम की भावना प्रकट होने पर ही यह यात्रा प्रकट होती है और वह मेरे प्रियतम की गहन सुधा में झूमना ही भक्ति का प्राकट्य है । उससे पूर्व की दशाएँ केवल भक्ति-आभास मात्र है । और इस ललित प्रेम दशा से आगे की गति ही भाव राज्य का पथ है ।

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