ललित अर्थात् , तृषित

*ललित अर्थात्*

मधुरतम परस्पर प्रेमासक्त सम्पूर्णताएँ जब और नवीन उत्साह-उत्सव-उन्माद प्राप्त करती है तो वह "ललित" है । ... यह मधुर प्रेमोत्सव की बीज और परिणाम माधुरी है । सामान्य जीवन "ललित" इसलिये नहीं समझ सकते क्योंकि वह मृत्यु के पथिक है और "ललित" नित्य नवीनता का प्रस्फुटन-विस्तरण- गहनोत्तर गहन उन्माद विलास । 
ललित अर्थात् और सुभग ...और सुन्दर ...और मधुर ...और कोमल ...और निर्मल ...और शीतल ...और प्रकम्पन भरित मधुरतम लीला-उत्सव । कोई जीवन जब भी सहजतम ललित स्पर्श या सँग पाकर उत्सवित हुआ होगा तो वह और नवीन श्रृंगार उपचारों सँग जिस धरा पर टपक रहा होगा वह सुरभिनि भावधरा "लीला" है ...सो जीवन उत्सव मात्र "ललित" नहीं होता , नित सुमधुर प्राण का निजतम कोमल लज्जित प्राण में विलसन अर्थात् लीला उत्सव ही "ललित" है । लीला अर्थात् नित प्रेम कौतुक का सहजतम उल्लास ... ...रसिला प्रवाह ...लास्यमयी ललित - पुलकन -प्रफुल्लन । उमड़ते रससुधा चेतनाओं का विलास अगर बिन्दु चेतन जो कि शुष्क भी हो रहा हो समझ सकें तो वह समझ रहा है ...लीला ।  रस का और सघन मधुर रस होना ... और उमंगित दम्पति का नवीन-नवीन कैशोर्य में झूमना और पुलकित होते रहना अर्थात् नित्य बिहारिणी-बिहारी का नित्य मधुरित मदिर उत्सव "ललित" । 
जहाँ बाह्य प्रपञ्च संसृति-झरण आदि नश्वरता को प्राप्त करता है , वहाँ चेतनाएँ नश्वर तो नहीं होती परन्तु कर्म-असत-भोग आदि बन्धनों से चेतन का विघटन या ह्रास बढ़ता जा रहा होता है , सोपान दर सोपान ...पीढ़ी दर पीढ़ी नीरसता का वर्द्धन ।  जबकि "ललित" रस सोपान दर सोपान मधुरतम कोमल और पुलकित होता रहता है ज्यों पुहुप (फूल) और खिल रहा हो ... और खिलता ही जा रहा हो । "ललित" गौरश्याम श्रृंगार रस में प्रथम रश्मि है , तो प्रथम सौम्य साँझ भी और प्रथम मिलन के निजतम स्पंदन भी , जो कि नित्य नवीन प्रथम मिलनोत्सव का सहज उत्स उद्रेक कर रही है । 
गौरश्याम स्वरूप-हृदय विलास से प्रकट बिन्दु - बिन्दु का लीलात्मक अंकुरण "ललित" है । बाहरी रूप से समझें तो फल में निहित बीज का आदर रखकर जब उसे रोपित किया गया हो और वह पुनः लता रूप धारण कर लें तो वह बीज और उसका दृष्टा दोनों "ललित" हो गए है । जीवन या प्राण का क्रमिक विकास परन्तु जीवन और प्राण भी कुछ दूर जाकर ठहरते स्थूल अनुभववत ही है , अगर वह (जीवन या प्राण) सहज भावना और भावदशाओं के आनुगत्य में नहीं है और जीवन या प्राण को भाव सम्बन्ध से विछोह कराता है , स्वार्थ या भोग-विषय आसक्ति । भावमय परहित-गामी  या परमार्थी ही आगे बढ़कर "ललित" रस के बीज या फल हो सकते है । "ललित" प्रतिध्वनि है सौन्दर्य के और सौन्दर्य में भीगते रहने की ... और सरस गहन रस को कोमल मैन रूपी भाव पात्र ही "ललिताई" से धारण कर सकता है । सहज रस के भोग को ... और सहज भोगी के रस को जब प्रेम विलास सिद्ध होने लगें तब वह उतरने लगते है "ललित" सरोवर में ... जहाँ प्रेम विलास भरित यह "ललित" मधुरोत्सव ... और उमंगित होकर उच्छलित रहता है । किसी सुन्दर लता के नित्य कोमल सुभग सरस होते पत्र-फूल-फल बढ़ रहे हो और झरे तनिक न हो , बस वें सघन से सघन हो उत्सवित होते जा रहे हो तो वह लता "ललित" है अर्थात "ललित" प्रपञ्च का ह्रास तत्व कतई नहीं है (ह्रास अर्थात् जो नष्ट हो रहा हो) अपितु प्रपञ्च आयोजन में भी "ललित' नवीन सौन्दर्योदय का आकर्षण भरित कुमारिका श्रृंगार है । वस्तुतः प्राणी के भीतर की असहजता वर्द्धन से यह "ललित" सारङ्ग विलासिनी अदृश्य अनुभव हो सकती है जबकि सहज-सरल और नित्य तृषित होते प्रेम - चकोरी , रस - भँवरियों के लिए "ललित" भीतर उच्छलित सहज उत्सवों की मधुशाला ही है । नित्य गलित कोमल होती हुई ... शीतलतम लालसा ही ललित झँकृति में भीगो सकती है । हिय लालसा का उत्सव जब शीतल ललित फूल या ललित मुक्ताओं से भाव-कुँजन भरने लगे और उत्सवों की मदिरा नित्य उत्सव हेतु व्यसन बन पड़े ...तब वह व्यसनी आंतरिक स्तरों पर और ...और पुलकित होते हुए खोज रहें होते है निजतम ललिताई का सौन्दर्य सरोवर ।  युगल तृषित । क्या तुम अलि या भृमर हो ... ???  ...  हे सौन्दर्य-रस लोभियों आओ इन सौन्दर्य सार श्रृंगार रँग विलास निकुँजनों की रँगाई में ... और हो जाओ "ललित" ! जयजय श्रीश्यामाश्याम जी !

Comments

Popular posts from this blog

Ishq ke saat mukaam इश्क के 7 मुक़ाम

श्रित कमला कुच मण्डल ऐ , तृषित

श्री राधा परिचय