नवबाल पुहुपोत्सव वृन्द रेणु रेणु
*नवबाल पुहुपोत्सव वृन्द रेणु रेणु*
https://youtu.be/XQT6n6vbyI0
आपने सम्भवतः यह पूर्ण भाव सुना ना हो , तनिक मनन कीजिये ।
*कलि कलि आ गई है स्वरूपों पर उत्सवों का और प्रबल होता उन्माद । मिलती यह दो लताएं अब यूँ मिलेंगी ...हाँ री इनके पुहुप उलझेंगे । कलि के हृदय में उठा विलास का बिहाग उसे उत्सवित और पुलकित करता हुआ खिलता जावेगा और वह नवबाल पुहुपाती सी हो उठेंगी ... फूल ...और और उन्मादित पुष्प । तब भी वह रोमावलियों का डोल उत्सव कहाँ थमेगा , तुम इस पुहुपाईं की लज्जा अपने में भर पलकों की बौरनियों से बस हिय में भरो तो जब निहारोगी पाओगी और खिल उठा यह प्रेम पुहुप । पुष्प अभी उत्सव मनाना सीखा ही तो है और बढ़ रही उसकी पँखुड़ी-पँखुड़ी और आती हुई मधुभोगी अलियों से लजाकर उन्हें कहता यह पुहुप कि अभी नहीं अलि री और पुलकनें भीतर आ रही है ...मधुपान हेत ठहरो ना शीघ्रता कहाँ है ...और इन पुलकनों से लहराते सुरभता के घन से विवश हुए आएं भँवर । ... ना करिये ना यह भृंगन अभी सुगन्धें धीमे धीमे बस टपकना ही चाहती ब्यार में । हिय रोग को थामे व्यसनी भृमर कैसे सँग करें कि ना करें बस उसका वर्द्धित नलिन रूप कह रहा कि वह सुरभ पिपासा को बाँध नहीं सका है । और खिलती पंखुड़ियों के रँग उद्रेक के परागित रँग पान हेत आईं हम तितलियाँ । ... कितने फूलों के सौंदर्य विलास का यह प्रेम सत्कार कहुँ री रसांक भरते भरते वह पुहुप और किसी पुहुप से ऐसे सिमट कर कुछ कहने लगा कि शेष रही तो यह झरित सुमनित गुलाल ... और अब भी यह गुलाल सूख ना सकी है पँकिल विलास से ।* ... शेष श्रवण सँग । युगल तृषित ।
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