कौन खेलें प्रेम , तृषित
*कौन खेलें प्रेम*
प्रेम को कहा या बताया या अभिव्यक्त क्यों नहीं किया जा सकता क्योंकि वह जहाँ जैसा बताया जा चुका होगा वहाँ से उड़ सकता है । जैसे कहुँ कि प्रेम में आलस्य है , वह काल मर्यादित नही रह सकता तो प्रेम में ही तो प्रतिक्षा और प्रेम में ही अतिव व्यग्रता भी है । प्रेमी-साधकों को प्रेम के गोपन रसों को रसिकों के जीवन या सिद्धांतों से चुराना आना चाहिये । क्योंकि वह प्रकट किए जाते है तब तक प्रेम विपरीत धर्म अपना ही लेता है क्योंकि प्रेम तो जानकर पहना हुआ आभूषण नहीं है । इधर चलो प्रेम मिलेगा ऐसा कहा ही नहीं जा सकता क्योंकि सम्भव है वह किसी सोये हुए को भी मिल गया हो , परन्तु प्रेम को संक्रमण या चोरी से पाया जा सकता है लेकिन प्रेम के पाठ को याद कर नहीं प्राप्त हो सकता , कहा जावें इन्हें देखो , पूर्व में जिन्होंने देखा उनकी यह प्रेम दशा हुई है तो वहाँ वह दर्शन भीतर से खुलें नहीं होने से बरसने पर भी भरते नहीं भरेंगे । अगर पात्र रिक्त और प्यासा हो तो वह प्रेम की बिन्दु - बिन्दु खोज-खोज कर झुम-झुम लहराना चाहता है । परन्तु प्रायः हृदय गत रिक्तता और नवेली तृषा यह दोनों ही लुप्त लताएं हो चुकी हो ज्यों कि अब प्रेम का वन निहारना दुर्लभ ही दर्शन या अनुभव है ।
कहा जावें प्रेम कोमल है तो स्मृत रहें कि कोमलता का अभिनय प्रेम नहीं है । जिसे पता हो कि तितली इस फूल से किस फूल पर जाएगी और खग यहाँ से उड़कर कहाँ बैठेंगे वह कुछ प्रेम को गति करते हुए अनुभव कर सकते है कि वह एक खग वत उड़ पड़ता है अथवा उसकी चाल और भी गोपन और सघन की रसिकों को बाँकी चाल कहना ही पड़ा , तो इतना अटपटा है क्या प्रेम जी बहुत ही अलबेला कि जिसमें भरा वह निराला हो उठा हो और निराला तो आज भी निराला है सो खोजें हुए उपकरणों से प्रेम का शिकार नहीं किया जा सकता है । सम्भव है यह पढ़कर लगें कि इतना भी तो विचित्र नहीं होता प्रेम देखो तो यह रहा और पुड़िया में भर कर तीन समय घोल कर पीने को मिल ही जावें , अगर इतना सस्ता भी होता तो मुझे भी मिल ही गया होता ही जी । प्रकट धरा के सभी सहज प्रेमियों के स्वभाव परस्पर इतने भिन्न होगें कि स्वभावों की नकल से भी प्रेम नहीं स्पर्श होता है । परन्तु ... तुम्हारे भीतर प्रेम उत्सवित है ... हाँ तेरे भीतर बताऊँ तुझे कि वह झूमना और उड़ना और तैरना भी चाहता है और ... वह बस खेलना चाहता है परन्तु अपने ही भीतर के उस प्रेम को छूने का सरल मार्ग है स्वार्थ का त्याग । निःस्वार्थ - निराश्रित - निर्विकल्प और निर्मल भी कोई हो गया है तो सावधान वह प्रेमी हो गया है । ... और एक बात स्मृत रहें जिस वेला में भीतर से प्रेम कम्पित होकर बाहर आता है उसी क्षण वह सहज प्रेम मात्र श्रीललितमाधव द्वारा अपहरित हो जाता है । उन्होंने ही प्रेम को निरावृत किया और वहीं प्रेम को निरावृत नहीं निहार सकते और स्वयं वसन हो जाते है , है न प्रेम का त्रिभंग विलास ... फिर भी तुम्हें उसी का स्वाद सताता भी जैसे कि बस अभी - अभी ही पिया हो ... तो है कहाँ वह ... अतन झूमता प्रेम । अनन्त प्रेम शून्य दशाएँ श्रीहरि के पट हटने की प्रतीक्षा में है और श्रीहरि का पट निज प्रेमी की प्रतिक्षा में है । श्रीप्यारे अपने प्राणों से प्रिय प्रेमी से मिलने के लिए दौड़ जाते है तो श्रीप्यारे प्राण से मिलने के लिए जो प्राणों को छोड़ दौड़ सकें वहीं प्रेमी है । प्राणों को छोड़ अर्थात् ...तन की परिधियों से भीतर हृदय कल्लोलिनी के तटों पर ... और प्रेमी ही पहनता भी यह जीवन रूपी आभूषण कि ... श्रीहरि के प्रेम में भरी हुई भीगी दशाओं को ही विधि की परिधियों में मिली अवधियों को निर्वाह करना होता है तो प्रेमी ही प्राप्त रसों का सँग छोड़कर प्रेमास्पद रूपी रस में सदैव तन्मय व्यसनी सा रहता है ।। युगल तृषित । प्रेम का गीत बड़ा विचित्र है जिसे भी समझ आया उसने बस ... नृत्य किया है । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । प्रेम का नृत्य भी बड़ा विचित्र है सुना है कि ... वह देखते रहे और गाते रहें ... ... !
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