रस संक्रमण , तृषित
*रस संक्रमण*
*वैसे इस लेख में कुछ विशेष मिलेगा नहीं आपको ...*
*स्थूलताओं को रससँग ही भँग कर के रस से अभिन्न कर सकता है , इतनी सी बात है यहाँ...*
अनन्त वस्तुएं समुद्र नदियों के जल में भीगी रहती है , जैसे चट्टान , रत्न , वनस्पति , जीव आदि । समुद्र की तरलता का स्पर्श तो उन्हें होता है परन्तु वह तरलता से अभिन्न नहीं हो पाते है ।
उसी जल में तरल द्रव्य प्रवाहित करा दिए जावे तो वह अभिन्न होता अनुभव होता है , परन्तु तब भी जल में जल ही मिलता है । जल में दूध मिलने पर ना विशुद्ध दूध होगा , ना ही विशुद्ध जल ।
फिर भी जल और दूध का मिलन भीतर पड़ी वस्तुओं से अतिशीघ्र घटता दिखता है । यहाँ जल में जल का मिलन होवें तब और शीघ्रता से अभिन्नता होती है ।
यह सब केवल उदाहरण भर है ...श्रीप्रभु रस स्वरूप है । और जीव की अनन्त जन्मों के अनन्त संस्कारों से ठोस प्रकृति हो गई है । वह अपने ठोस स्वरूप को कभी भँग नहीं कर पाता ...भले जल में भीगा रत्न जल का नित्य स्पर्श पाता होवे परन्तु स्वभाविक भेद से वह नित्य सँग में भी स्वरूपतः अभिन्न नहीं हो सकता है ।
वस्तुतः जीव की देह का भी घटन रस से होता है तब भी वह स्वभाविक ठोस होती जाती है । विज्ञान भी देह की तरलता को अधिक कहते है कि शरीर मे सर्वाधिक जल है परन्तु मनुष्य के जड़ संस्कारों को दाहसंस्कार ही नहीं मिटा पाता है । हमारा स्वरूप अनन्त कोटि बार दाहित हो चुका है परन्तु अब तक सरस् द्रवीभूत नहीं हुआ ।
प्रभु... ईश्वर स्वभाविक रस है तो क्या जीव रस है ?? जीव सम्पूर्ण रस नहीं है परन्तु उसमें रस के परमाणु है ...जीव-ईश्वर का मिलन दूध और जल के मिलन सा हो सकता है परन्तु दूध और दूध सा मिलन नहीं ।
अतः जीव स्वभाविक प्राप्त गति से भी सन्तुष्ट नहीं हो सकता है । क्योंकि भले दूध और जल के अणुओं के मध्य रिक्त-स्थल होने से उनका सामीप्य अभिन्न लगें परन्तु सामीप्य की यह स्थिति कैवल्य नहीं है । जल-जल ही है , दूध-दूध ही है ।
भगवत चिन्तन ...भगवत रसगान का संस्पर्श चेतना को रसभुत कर सकता है । विशुद्ध भगवत प्रेम से भरी चेतना जब भगवतोन्मुखी होकर उनके सुधा में अभिन्न होती है तो श्री प्रभु के रस का श्रृंगार होकर मिलती है । जैसे दूध की गुणवत्ता जल के सँग निम्न होती है और दूध में और गाढ़ दूध या घी संमिश्रित होवे तो वह गुणवत्ता और निखर जाती है ।
रस के नित्य चेतन सँग होने सम्पूर्ण प्रकृति और चेतना ही माखन सी होने लगती है जो पिघल सकती है और उसमें पौषक चिकनाई भी होती है । श्री प्रभु का नाम , गुणगान , लीला , धाम ऐसे ही हमारी ठोस जड़ चेतना का स्वरूप परिमार्जित करते है । अपने प्रयासों से हम सदा ठोस होते है और रस के वास्तविक सँग से रस ही विकसित होता जाता है ...प्रेम सरस् रस है । गाढ़ ...कोमल ..स्वभाविक मधुर है ...अमृत है । और यही स्पर्श जीव की सभी स्थितियों में उसे अछूता रहता है । जीव की कामनाएं-वासनाएं प्रेमोप्लब्धि से पूर्व ही भटकती है । रस प्राप्ति पर चेतना के ठोस संस्कार रसभुत हो जाते है । जीव के अनुभव में रस नहीं है ...अति गाढ़ मधुर स्थितियों में झरता अश्रु भी जीव का मीठा नहीं होता है । परन्तु श्रीप्रभु की प्रकृति रसभुत है , वह अपनी मधुरता कहीं नहीं छोड़ सकते है अतः उनके मधुर स्पर्श और उनकी मधुर निहारन में प्रेम पथ पर आये जीव में केवल मधुरत्व देखती है ...मैं कितना ही सिद्ध हो जाऊँ मेरे अश्रु बिन्दु मधुर न होंगे परन्तु श्रीप्रभु प्रति स्वेद बिन्दु को मधुर रसवत ही पावेंगे क्योंकि श्रीप्रभु की छाया ही अमृतोषधि है । यह उनका ही रस उन्हें ही रिझाता हुआ उन्हें पाता है । वरन हम गंगा में मिलते समय राख होते है जल भी नहीं ...श्रीप्रभु का रस और उस रस का सँस्पर्श अर्थात रससँग , सत्य-सँग से चेतना अमृत आनन्द के उत्सवों में भीगती जाती है । प्रेम एक संक्रमण है ...छूने से फैलता है । अर्थात सँग से । रस सँग से पृथक कोई विकल्प चेतना के स्थूल संस्कारों को नहीं मिटा सकते । जीव रससुधा में रत्न होकर भिन्नता बनाएं रखना चाहता है और प्रेम का नित्य मधुर आह्लाद जीव की प्रकृति को नवनीत सा कोमल सरल द्रवीभूत सँकोचित कोमल श्रृंगारित कर ही रस में घोलता जाता है । रसभुत इस श्रृंगार मिलन का अभिसार रसराज के लिये भी असम्भव है जितनी मधुरता-सरसता ,चिकनाई से रससुधा में यह माखन हुई चेतना घुलती है उतना नित्य कोमल मिलन स्फुरित रहता है ।
तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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