तृषा-अनादर , तृषित

*तृषा-अनादर*

कोई नौकरी प्राप्त कर ही मनुष्य चुप नही होता है ,
वह तब भी छटपटाता है ...बेहतर वेतन के लिये ।
और वेतन वृद्धि के सभी उपाय करता है । क्या नौकरी मिलने पर प्राप्त वेतन ही कोई भी मनुष्य सम्पूर्ण जीवन लेता रहना चाहता है ...नहीं । अपितु सम्पूर्ण जीवन वेतन वृद्धि का लोभ रहता है ...

मनुष्य के भीतर भौतिक जीवन के प्रति बहुत छटपटाहट है , परन्तु आंतरिक भगवत रस या रसभावजीवन के लिये तनिक नहीं ।
यहाँ वह अगर कुछ पा जाता है तो वेतन वृद्धि सी छटपटाहट भूल भी जाता है । उस प्राप्ति में ही फूलता जाता है ।
वैसे तो सर्वज्ञ अधीश्वर श्रीप्रभु हमारे कोई दास नहीं है परन्तु वें ही दासानुदास भी है । अगर पथिक भक्ति पथ श्रीप्रभु को ही अपना दास रूप में देख लेवें तो वह स्वयं को महाप्राप्त मान लेता है । मैं प्राप्त कर चुका हूँ ...यह मान्यता ही कहती है कि अभी कुछ प्राप्त नहीं हुआ है । आंतरिक यात्रा का पद भी द्वारपाल से निजी सचिव तक जारी है । वैसे तो कहने भर को बहुत बार कहा जाता है कि हम तो भगवत धाम के द्वारपाल ही रह जावें परन्तु उनका बाह्य जीवन चौकीदारी की नौकरी में कभी सन्तुष्ट हुआ ही नहीं है ...बाह्य जीवन मे हमने अपनी सारी व्याकुलता नष्ट कर दी है । और बाहर के जीवन मे हम भले राजा या भगवान ही घोषित हो जावे परन्तु यह प्राप्ति तो अपनी व्याकुलता का घट अपने हाथ फोड़ देने सी मूर्खता भर है । पथिक का बाहरी जीवन सन्तोष और आंतरिक जीवन नित्य पिपासामय होना आवश्यक है जबकि होता विपरीत है । पथिक बाहर धैर्य शून्य है और भीतर एक क्षण की झलक भर को जीवन भर की प्राप्ति मान लेते है ।
भीतर का पथ इतने गहन विकास यात्राओं का पथ है जितना बाहरी जीवन का पुजारी स्वप्न में भी नहीं सोच सकता है । यह बात पीड़ा दे सकती है परन्तु सत्य में समुचित आंतरिक जीवन की वास्तविक व्याकुलता का हम सभी मे अभाव है । क्योंकि हमने जीवन तृषा के रंगों को बाह्य जीवन में बिखेर दिया है । सारा दिन चिड़ियाघर हम घूमें और थक कर मन्दिर की सीढ़ियों पर बैठ कर स्वयं को भक्त समझ लें बस ऐसा जीवन है हमारा । सम्पूर्ण जीवन को भोग मनोरंजन में ध्वस्त कर के उस खण्डहर रूपी जीवन को मंदिर की तरह पुजवाने का लोभ क्या वास्तविक पिपासा कही जा सकती है ! आंतरिक पथ पर नित्य विश्राम स्थिति है परन्तु सेवा उत्सवों की विराम स्थिति नहीं है ...तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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