प्रेम ही प्रेम को खींचता है , तृषित

प्रेम ही प्रेम को खींचता है

चुम्बक तो फिर भी लौह को खींचता है परन्तु प्रेम तो प्रेम को ही खींचता है ।
कर्षयती... इति ...
वह खींचते है ...परन्तु तनिक नयन को खोल कर यह स्वप्ननगरी मायालोक देखते है तो कौन खींचा जा रहा... प्रेम व्यापक है सर्वमय है , तब भी वह स्पर्श करता अपना ही । प्रेम स्वप्न में भी अप्रेम का स्पर्श करता तो यह जगत रासमण्डल ही होता जहाँ युगल विहार की सेवा लालसा से हम भी भरें होते , अगर प्रेम अप्रेम को छूता तो ...चुँकि प्रेम केवल प्रेम को खींचता है । आपने इतना तो सुना होगा कि जितना भगवतनाम लिया जाएगा प्रेमप्रभु उतनी ही कृपा अनुभूति प्रबल अनुभव करायेंगे क्योंकि दूध जितना पकता (ओट) जावेगा वह उतना घनिभूत रहेगा । जल ताप नहीं सहन कर सकता , वह तपाने पर दूध का सँग छोड़ देता है ऐसे ही सुमिरन मन का हरण कर लेता है , शेष रहता है हममें वह विस्मृत तत्व जिसे ..जीव कहते है और पकाने पर केवल चेतना रह जाती है , प्राकृत स्थितियों (देह-जगत) का वाष्पीकरण हो जाता है । यह नामरस चेतना को केवल विशुद्ध ही नहीं करता अपितु उसे वास्तविक काया भी प्रदान करता है । नाम की पुकार में जैसी भावना है वैसा ही चेतना स्वरूप अनुभव करती है जैसे नाम मे स्वामी भाव है तो चेतना दास्य स्वरूप में ढल जाती है और वह स्वरूप केवल मात्र सम्बन्ध के बीज में रस प्रवाह होने पर फलता-फूलता है । सम्बन्ध का आधार भाव है ...भाव से स्वभाव गहराता है ॥ प्रेम स्वरूप हैं कौन ॥ प्रेम की पूर्ण स्थिति है प्रीति-रस की अभिन्न सत्ता में विहारित होने में जो कि नित्य नवीन सुधाओँ में गहन होती जा रही है ...प्रियाप्रियतम । श्यामाश्याम अति मधुर-कोमल-सरस् स्वरूप की हमारे भावहीन हृदय लेकर दर्शन करने पर भी हृदय में भाव अंकुर उदित होने लगता है तो सहज भाव भरे हृदय से निरखने से क्या सरसता का अनुभव होगा यह कौन जाने ...वहीं जो इस प्रेम की वर्षा में नित्य भीगे रहते है ...भावुक रसिक-सन्त जिनका हृदय श्रीयुगल के स्वरूप-स्वभाव से नित्य अभिन्न होता हुआ उन्हीं श्रीयुगल की परमसेवा हो रहा है । इन रसिक प्रेमियों का प्रेम कोई जड़ प्रेम नहीं रहता यह जीवजगत को भले साधारण प्रेम सा होवें परन्तु रसिक हृदय में स्फुरित श्रीयुगलविलासमय जो प्रेम है वह किसी भी लोक के किसी प्रेम स्थिति की समझ से परे की बात है ...अनिर्वचनीय स्थिति । ऐसे मधुर श्रीयुगल की मधुर झांकियों से अभिन्न भावहिय से झरित नयनों के अश्रुओं का काजल अगर मिलें तो इस प्रेम को बिन्दुवत अनुभव किया जा सके । निर्मलतम-उज्ज्वल-मधुरातीत-मधुरामृत-गुणातीत-सर्वगुणाधार-श्रृंगार-रससुधानिधि दिव्यप्रेमरस का स्फुरण किसी वासना-प्रपञ्च-भौतिक-प्राकृत दृष्टि से कैसे होगा ??? जैसे किसी रोती हुई मूर्ति के सन्मुख हम कितना ही प्रेमनृत्य करें उसकी स्थिति नहीं स्फुरित हो सकेगी ऐसे ही देह-जगत के सम्बन्धियों में कैसे दिव्यप्रेम का रस नित्य होते हुए दृश्य होगा । वह स्पर्श होगा रसिक नयनों के काजल या रसिक दर्शन मय उस दृश्य से भरे वाणी में नित्य निमज्जन से आस्वादन स्वरूप नित्यविहार का श्रृंगार स्पर्श हो जाने पर । कुल मिलाकर प्रेम ही प्रेम का दाता है , मृण्मय जगत नित्य भगवत सँग होता हुआ भी देख नहीं पाता तो इसलिये कि सत्य को निहारने की लालसा ही नहीं होती है । लालसा का अर्थ यह नहीं कि ...भरी महफ़िल से पूछे कि किसे भगवान ही प्यारे है और उनके लिए छटपटाहट होती है तो सभी हाथ उठा देंवें । यह लालसा नहीं ...यह अवसर-लाभ है । लालसा है कि सर्वता के छुटने पर भी हम उसी प्रेमास्पद को चुने । प्राणों से प्रिय स्थिति की लालसा होवें । निजप्राण आहुति से  एक-एक झाँकी की झलक होवें । प्रेम की क्षणार्द्ध स्फूर्ति प्राण-आहुति पर सम्भव है क्योंकि सरस् प्रेमरस का स्पर्श भावात्मक रसभावदेह होकर ही हो सकता है अतः जो रसिक सिद्धदेह प्राप्त है , वें नित्य प्रेमी है और उनके सँग से ही यह अनन्त आवरण छिन्न-भिन्न हो सकते है । उनके ही भाव प्रकाश से हमारा जन्म जन्मांतर का तमस ध्वस्त होता है और चेतना जडियता के स्वांग को भँग करने के लिये आन्दोलित होती है । चेतना देह-प्रपञ्च को भँग करने का जितना तीव्र आंदोलन करती है उतना ही मधुर प्रेम का नाद स्पर्श होता जाता है । यह आंदोलनात्मक लालसा रसिक सँग से जड़ नहीं होती है ... विशुद्ध-लालसा से व्याकुलित महारात्रि में शरदचन्द्र सा उत्स दृश्य होता है और वह मधुर प्रकाश दर्शन ...दृश्य-द्रष्टा से अभिन्न होता हुआ प्राणों में छिप जीवंत विलास होता जाता है । तृषित ।  जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । रासमण्डल में श्रीराधाकृष्ण का प्रेम उत्स सर्वरूपेण सर्वता का सरस् पोषणत्व है । मधुर प्रेम में भीगे सरस् प्राणों से झरता नित्य मधुरामृत...

Comments

Popular posts from this blog

Ishq ke saat mukaam इश्क के 7 मुक़ाम

श्रित कमला कुच मण्डल ऐ , तृषित

श्री राधा परिचय