पूजन , तृषित
*पूजन*
नावार्थी हि भवेत्तावद् यावत् पारं न गच्छति ।
उत्तीर्णे तु सरितपारे नावा वा किं प्रयोजनम् ।।
श्रीगुरु और भगवत्कृपा से उपलब्ध पूजन के सभी उपचार भगवतोन्मुखी होकर उन्हें अर्पण करने का सुअवसर प्राप्त होता है । जैसी पूजा पद्धति हमें सनातन रस देता है वह दुर्लभतम है क्योंकि यहाँ पूजा केवल बाहर ही नहीं हो रही होती है , यहाँ पूजा बड़ी अद्भुत रूप अपने इष्ट तत्व में समावेश हो जाने की ...अभिन्न हो जाने की सहज विधि है ।
वस्तुतः अनुभव और दृष्टि पर लगें पट खोलने के लिए ऐसी अद्भुत व्यवहारिक व्यवस्था भारतीयता हमें देती है । आज सभी और दृष्टि पर आया यह भेद (पट) बहुत कष्टदायी है , और जिस भाँति मधुमेह रोगी स्वयं को रोगमय नहीं मानता है वैसे ही विषय रोगी अपने रोग को अनुभव ना कर , दृश्य और सर्वरूप प्रकट ईश्वर के अनुभव से छूटता जाता है ।
विधि कोई भी हो बात वह एक ही कहती है तत्व एक ही है और वह नित्य है और अनन्त आनन्दमय विलास में सर्वरूपेण प्रवाहित है । पूजन पद्धति में यहीं भावना है प्राणप्रतिष्ठा अर्थात चेतन की प्रतिष्ठा , इससे पूर्व सत्य की प्रतिष्ठा होती है और प्राणप्रतिष्ठा उपरांत सेवा आयोजनों द्वारा भगवत्संग से ही उस स्वरूप में आनन्दप्रतिष्ठा होती है । इस तरह वह स्वरूप सच्चिदानन्द होकर जीवन को रसभुत करने लगते है । श्रीप्रभु के स्वरूप की सेवा की क्या आवश्यकता है ?? . .वह आवश्यकता है वस्तुतः प्रभु की नहीं है अपितु हमारी है , चेतना में व्यापक परिमंडल की सेवा वृत्ति जो कि अनन्त काल से प्रकट ना होने बड़ी ही व्याकुलित रहती है वह भगवत्सेवा के सुअवसर से जीवन मय होकर श्रीप्रभु से तादात्म्य हो जाती है ।
अगर आपने कभी कोई यज्ञ-पूजन आदि में भगवत्सेवा होने का अवसर पाया है तो उस क्षण सहजता के सँग से भीतर प्रफुल्लित होती निर्मलता का अनुभव किया होगा । किसी भी संस्कार अथवा अनुष्ठान का लक्ष्य है सद्व्यवहार-सद्दृष्टि-सदानुभव मिलें । अर्थात व्यवहार सदा वैसा ही होजावें जैसे भगवत्सेवा काल मे रहता है । भीतर का अनुभव , दृष्टि ,दृश्य सभी मे वहीं अनुभूति स्थायी हो जावें । कर्म ब्रह्म से प्रवाहित हुआ है , इस कर्म को हमें पुनः ब्रह्म में स्थापित कर देना है । यहीं कर्मकाण्ड है ...चुँकि सर्वकर्म से छूटने को ही कर्म को ग्रहण करने का आदेश है ...यह बात सामान्य विलासी जीव समझ नहीं पाता शास्त्र की ...कृत्य शून्य होने को कृत्य है ...कर्त्तत्व रहते हुए स्वयं की उपलब्धि (आत्मबोध) नहीं होती । प्रत्येक स्थिति रसप्राप्ति हेतु घटित होती है , परन्तु जीव उस स्थिति से अपने को और गहन प्रपञ्च में फँसा लेता है , इसमें स्थिति का कोई दोष नहीं है । इस दोष का निरावरण होता है प्रत्येक शक्ति-क्षमता-सामर्थ्य उपलब्धियों-स्थितियों सँग अपने प्रभु की नित्य पूजा की जावें। जिससे धीरे-धीरे दृष्टि निर्मल होने लगती है , जैसा कि तुलसी पत्र हम पीढ़ियों से भगवतप्रिय ही मान उसे प्रसादवत ग्रहण करते आये है , तुलसीपत्र पर चरण आदि का स्पर्श होना अपराध है यह सीखना भी नहीं पड़ा हमें , वैसे ही प्रत्येक भगवत पूजा के प्रत्येक भगवत सेवाद्रव्य के प्रति हमारी दृष्टि और अनुभव होता जावें । जिस कर्मकाण्ड को आज का समाज ह्यता से देखता है , वह विज्ञान का जनक है क्योंकि वह अतिशीघ्रता से ईश्वरीय-सम्बन्धों का अनुभव भीतर भर देता है । अर्पण की वस्तु को प्रसाद सिद्ध कर देता है और प्रसाद के सँग व्यवहार को नास्तिक को भी सिखाना नहीं होता है । यह विज्ञानात्मक पद्धति है श्रीप्रभु के शरणागत हो जाने की । यहाँ आवाहन में ही सर्वभूत-सर्वतत्व- सर्वरूप-सर्वशक्तियों सँग आवाहन है ...आज बहुत बार पूजन करते समय साधक आपस मे ही झगड़ पड़ते है , क्योंकि पूजा हमें जो अनुभव देती है उसकी इच्छा ही वहाँ होती नहीं है , वरन यह लघु पूजा सम्पूर्ण जीवन सूत्र परिमार्जित करने को होती है । जहाँ आवाहन ही सर्वरूपेण किया जाता हो , वहाँ शेष कुछ रहता नहीं है पूजन काल मे सर्वता अर्पण करते हुए हुई पूजा के उपरांत भव्य प्रसादी-वितरण के पीछे यहीं भावना रही है कि सर्वभूत सर्वरूप जो आवाहन हुआ वह प्रभु स्वयं ही सर्व रूप आकर तृप्त होंवे । सर्वता की तृप्ति में ही पूजन की सिद्धि अनुभव की गई है । अतः सर्वभूत ईश्वर को सर्वरूपेण भोग्यप्रसादी-वितरण कर अपनी अंगुलियों पर चिपके कणों को ग्रहण कर सर्व रूप शरणागत हो जाने का यह संस्कार , सर्वता को सर्व को अर्पण करके सदा प्रफुल्लित होता रहा है । विशाल भंडारे और लँगरो के आयोजन में आयोजकों के भीतर होते सुख की कोई सीमा नहीं होती , यह बात सिद्ध करती है प्रत्येक वस्तु जीवन में सेवा हो जाने पर रसमय अनुभव हो जाती है और उसी वस्तु का व्यापार या विषय कर लेने पर वह रस से उतना ही दूर कर देती है , पूर्व के आयोजनों में कुछ पंगत भावुकों को प्रसाद परोसने उपरान्त ही स्वयं भोजन पाया जाता है , और जिन्होंने भी अन्यों को पवा कर फिर स्वयं पाया भी होगा ..वह अनुभव किये होगें कि प्राण-आत्मा सब तो सबकी तृप्ति से तृप्त होगये है और सहज क्षुधा शून्य होने पर केवल शरीर निमित तनिक आहार ही ग्राह्य रह जाता है । अतः प्रसाद वितरण करने हेतु ही है ...जो पूजन से प्राप्त द्रव्य वितरण ना किया जावें उसमें भगवदीय रस उतना ही क्षीण हो जाता है ...प्रसाद बादाम या मूँगफली नहीं होता है , वह केवल भगवत्सेवा और भगवत्प्रेम से भरा उनके सुस्पर्श का पुरस्कार होता है । और प्रसाद वितरण भी पूजा का एक अंग है ... जैसे मोर के आलाप से बादल अपना रस झार देते है और वह रस केवल उस मोर पर नहीं झरता , वैसे ही प्रसाद का वितरण भगवत्कृपा का वितरण है (मोर के आवाहन को प्रमाणित न माने तो भागीरथ के आवाहन को स्मृत कर लीजिये कि गङ्गे माँ सर्वार्थ अवतरित कृपा है) , यजन का एक दिव्य व्यापक संकल्प है ...विद्वत जन से अर्चन कराते जन जानते है कि संकल्प से ही सिद्धि है वह बहुत प्रधान अंग है पूजन का । पूजन में संकल्प को कितना परमार्थ हेतु श्रृंगार किया और कितना स्वार्थ से लघु किया , यहाँ ही रसतत्व अर्चक के हृदय का चित्र देख लेते है । प्रत्येक पूजन या मन्त्र का अपना विनियोग है और वह निष्काम अर्चक के सँग से ही तृप्त होता है क्योंकि निष्काम अर्चक उस मन्त्र या स्तोत्र की फलवर्षा को मान चुके होते है , निष्काम होने पर भजन-पूजन-तप अर्थ शून्य नहीं हुआ है अपितु वह सम्पूर्ण सार्थकता के सँग से प्रसन्न हो जाता है। यहाँ यहीं कहा है कि संकल्प में स्वहित नहीं , सर्व हित निहित हो क्योंकि ऋषि और असुर तत्व का बोध संकल्प में निहित है । पूजाओं में सकामता केवल इतनी होती है कि पूजा का सुअवसर प्राप्त हुआ , प्राप्त रसफल तो सर्वव्यापक सर्वरूप प्रभु को ही अर्पण करना होता है । सेवक फल हेतु सेवा कर रहा है तो सेव्य तत्व भी फल तो दे देते पर सेवा तो निज सेवक से ही ग्राह्य हो सकती है (प्रकट लीला में दुर्योधन के सेवा उपचार न ग्रहण करना और सैन्य संसाधन दे देना आदि)
पूजा होती है , भगवदीय नित्यानुभव-नित्यानन्द स्थापित हो जाने हेतु ।
पूजन का एक और गहन पहलू है जिसपर हमारी बुद्धि बहुत कुतर्क करती है , वह है *विसर्जन* ।
आवाहन द्वारा भगवत्संग का उद्भव , नानासर्व उपचारों द्वारा भगवत्संग में स्थिति और स्थिति के पूर्ण रूपेण स्थित हो जाने पर बाह्य स्वरूप रूप श्रीमूर्ति का भीतर की प्राणगंगा में विसर्जन होता है । मूल में यह अपना ही विसर्जन है ...नवरात्र - गणपतिमहोत्सव आदि में विसर्जन हम देखते ही है , परन्तु किसी भी अनुष्ठान में विसर्जन कब होना चाहिये ?? स्थापन से नित्य सेवा-उपचार में श्रीइष्ट में ही नित्य गति-मति हो जावें तब । जिस दृश्य और अनुभव हेतु यजन होता है , पूजन होती है वह है सम्पूर्णता सँग इष्ट में समावेश होकर उनके ही रस-रँग में अभिन्न हो जाने को अपने मूल से अन्य होने की स्थिति से साधन विकसित होता है और अनन्य हो जाने तक साधन शेष होता है । सेवा-पूजा करते-करते दिवारात्रि केवल श्रीप्रभु का ही स्पर्श भीतर सँगठित होता रह्वे , प्राण स्वरूप सेवा यजन में ही वास करने लगें । सेवा करते-करते सेवा ही हो जाने का अनुभव रह्वे । और चेतना भीतर बाह्य सर्व रूप उसी स्वरूप को अनुभव कर सर्वरूपेण वैसी ही सेवा हो जावें तब श्रीमूर्ति का भीतर की प्राण गंगा में समावेश होता है । प्रत्येक तत्व में प्रत्येक अनुभुति में प्रत्येक दृश्य में पूर्णरूप जब वहीं स्वरूप नित्य स्थित हो जाती है तब अपने प्राणस्वरूप का प्राणों में समावेश होता है ...आत्मसृजन की यह पूजा तब स्वयं को श्रीप्रभु में विसर्जित कर देती है । अपने ही आधार इष्टमूर्ति का विसर्जन का यह दृश्य बाहर दिखता है , भगवत स्वरूप का विसर्जन जबकि यह सप्राण प्रियतम में निजप्राणों का, समस्त भावों का , समस्त मोह-ममत्व का आंतरिक नित्य-आत्मसात सँगभूत हो जाने की स्थिति पर होता विसर्जन है । यहाँ आज जल-रस-गंगा तत्व से भी अभिन्नता प्राणों को शून्य हो गई सो विसर्जन आज पूजन से विशेष स्वांग हो गया है जबकि वास्तविक विसर्जक में अहंकार शून्य स्थिति हो चुकी होती है और आराध्य की सत्ता ही वहाँ शेष रहती है ।
आज पथिक दस दिन या अनुष्ठान काल मे भगवत्स्वरूप से सर्वरूप समावेश भाव से सेवा लोभी ना होने से केवल विसर्जन काल में पाश्चात्य रीति से नाचकर चेतना को मृण्मय सिद्ध कर सत्य में भगवत्पुजा की अपात्रता सिद्ध कर अपने कल्याण के सुअवसर को विसर्जित कर सुखी होते दिखते है । जबकि यह पूजन अवसर होता रसजीवन की अनन्यता की स्थापना हेतु और बहुत से सन्तों ने अपने नित्य रस में विभोर हो जाने पर अपनी स्वरूपसेवा को अन्य को दिया है , यह अपने प्राण श्रीविग्रह की सेवा दे देना , अन्य को भी निजप्राणों को नितरसभाव में ...नित्यानन्द में भर देने हेतु प्रसाद ही है । और श्रीप्रभु की सेवा से चेतना में नित्य प्रकट उनका सँग ही स्वभाविक सर्वता से सर्वसंस्कारों में मिली नित्य उपाधि स्थिति है अर्थात तदाकार तदलोक में तदसेवा-रस हो जाना है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । हम सभी केवल एक अर्चक (सेवक) है , और केवल यजन (पूजन) ही हमसे सिद्ध होगी , शेष परता भरा जीवनकाल स्वप्नवत-विस्मृत हो जावेगा । सम्पूर्ण जीवन ही तो पूजन है ... हे सेवक ।।।
हम सेवक हैं और सच्ची सेवा करना ही हमारा परम धर्म है
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