भावना , तृषित

*भावना*

समुद्र को अंजली में पी जाना भले आसान होवें परन्तु प्रेम का उद्घाटन सर्वथा अनिवर्चनीय है । अब प्रश्न उठता है कि जिस विषय को बांचना ही असम्भव है उसी विषय की निरन्तर चर्चाएं क्यों ??
ताला और चाबी जब तक सँग है अथवा सुलभ है तब तक उनका सँग अनुभवित नहीं होता । ताला लगा होवें और चाबी खो जावे तब उस चाबी की तलाश होती है , वस्तुतः प्रेम वहीं चाबी है और सम्पूर्ण मनुष्यता यहाँ तलाश है उस चाबी की । वस्तुतः यह सम्पूर्ण मनुष्यता पूर्ण सिद्ध होकर भी सदैव अपूर्ण ही है क्योंकि यहाँ  जो भी प्राप्त है वह केवल प्राकृतिक ऋतु का अवसर ही है ...नित्य और स्थिर कोई शक्ति सर्वमेव से वरण नहीं करती है ।
और जहाँ सर्वता सम्पूर्ण वरण होता है सर्वशक्तियाँ जहाँ अपनी सर्वता बलिहार जाती है वह श्रीहरि युगल पदपंकज है । यह श्री नवनीत नवघन मनमोहन प्रभु जब अपनी सर्वता विस्मृत कर जाते है तब यह श्री माधुर्या के प्रेमराज्य में नित्य श्रृंगार सरोवरों में नवरसों का नित्य भावाभिषेक प्राप्त करते है । इस निजरस श्रृंगार और भावरस का अंजली वत अनुभव भी केवल मधुरता में सर्व रूपेण किंकर हो जाने पर सर्वेश्वर श्रीहरि को सुलभ है । अर्थात प्रीत-रसपथ पर आवरणों का कोई प्रवेश नहीं है , भलें वह आवरण ऐश्वर्य होवें या सिद्धियाँ । अतः शक्तियों का सँग प्रेम की देहलीज को ही नमन करता है और स्थिति तब होती है अनिवर्चनीय । जो पाठ पूरा होता है उसे पढ़ने में रुचि नहीं होती परन्तु जिस पाठ का आदि-अंत न मिलें वह रोचक होता जाता है और इस प्रीति के आदि और अंत दोनों ही छोर पर एक ही नाम की प्राप्ति होती है ...श्रीराधा ।
यह एक ऐसा नाम है जिसमें कोई डूब जावे तो नित्य क्षण इस नाम की नवसुगंधें अन्तस् को पिघला कर प्रतिनाद को मधुर अनुभवित कर पुकारने का लोभ स्वयं नित्यश्रीकिशोरी जू सँग विहारमय वल्लभ प्रियतम का प्राण-सुख हो जाता है । और यह लालसा सिद्ध होती है नित्य श्रीकिशोरी हियभावसेवाकिंकरी श्रीमधुरातीत मधुर वेणुका के सँग से । अर्थात प्रीति स्वयं ही अनुग्रह करें तो उसे अनुभव करने का सुअवसर श्रीमदनमोहन जू को सुलभ हो पाता है । अनिवर्चनीय प्रेम की यह भावनाएँ नित्य और ऐसी मधुरताओं में गूँथ जाती है कि लगता है जैसे सम्बन्ध में कोई दर्पण मध्य में है अभी मिलन सौभाग्य उदय हुआ ही नहीं ।
श्री किशोरी स्वयं प्रेमामृत-रूपसुधा अति मधुर बीज बिन्दु हैं प्रेम का , उनके प्रेम की दिव्यता की प्रत्येक कोपल , प्रत्येक कली , प्रत्येक आवरण (नित्य सरससेवा-श्रृंगार) अनिर्वचनीय है ॥ प्रेम को वाणी ही नहीं किसी इंद्रिय या बौद्धिक स्तर से छुआ नहीं जा सकता परंतु फिर भी हम बार-बार प्रेम के मधुर-जाल में फँसते है अथवा फँसना चाहते है सुनकर या पढ़कर प्रेममय होना चाहते है वाणी आदि से कहते हैं ...सुनते हैं जिससे हममें प्रीति का लोभ जाग्रत हो ... प्रेम रूपी चाबी (कुँजी) की यह खोज युगों से युगों तक रहती है कभी पूर्ण व्यक्त या प्रकट तो कभी मौन या अव्यक्त/अप्रकट रूप सर्व और दिवारात्रि प्रेम रूपी चाबी को खोजा जाता है ...यह प्रीति की अनिवर्चनीय तलाश ही साधना है अर्थात मानवता की आवश्कयता ही है यह लालसा और मनुष्य की क्या यह लालसा तो सर्व सहज कामनाओं के मूल बीज श्रीहरि-वल्लभ में भी होती है तो भी याचना ही होती है अपितु जितने निकट श्रीप्रिया प्रेमवल्लरी लहरा रही होती है उनकी रूप सुधा की तरंगे घुमड़ रही होती उतने ही निकट लालसा (तृषा) सजीव-नित्य-सुगाढ़ होती जाती है अर्थात प्रेम का मनुष्य दर्शनशास्त्र जितना दूर है श्रीकिशोरी जू उतनी ही फीकी लालसा है ...श्रीप्रियतम हरि हेतु यही लालसा हितवती होकर उनके ही श्रीसुरसित अधरकंजों से वेणु द्वारा अति अमृतसुधा केलियों की झाँकी होकर बहती रहती है श्रीकिशोरी कृपा से सुलभ यह प्राणपोषिणी युगलहिय श्रृंगारिका श्रीवेणुका । सरस् नित्य मदमति मधुशाला मधुर श्रीमधुपति मधुसूदन के मधुर अंगों को स्पंदन-कम्पन से भिगो देती यह वेणुका अर्थात श्रीप्रीति (प्यारीजू) का स्मरण ।
श्रीराधा ...प्रीति की यात्रा का बिन्दुवत जीवत्व को भँग कर खोजता पुकारता हुआ कोई भावुक ही अनुभव कर सकता है कि यह नाम ही सम्पूर्णता है नित्य प्रेम भावनाओं की अनन्त सरस् तँरंगो का और महारस सुधा के नित्य चकोर प्रियतम के अधरों का यह श्रृंगार दर्शन कर यह नाम पुकारते हुए अविच्छिन्न-अविराम निहारते रहना ही एक व्यापक साहस ही है ...वास्तविक साधना होवें अथवा भावना क्या कभी पूर्ण हो पाती है । अपितु जितनी चेतन उज्ज्वल सरस् होती जाती है उतना ही इसका एक-एक बिन्दु विश्ववत और एक-एक क्षण अनन्त युगवत चमत्कृत होता जाता है । प्यार असीम है यह वह ही कह सकता है जिसने श्रीकिशोरी जू की एक रेणुका के स्पर्श को जीवन में धारण कर उस रेणुका के महाभाव मद को भीतर भर सेविका होने की चेष्टा सजाएं रखी होवें ...वरन यहाँ का सुमधुर सरस् भावश्रृंगारकेलि हावभाव भरी गाढ़ वेगवती समीर किसे नहीं ढहा देती है ...रोम-रोम की दिवारात्रि कम्पनों को समेट कर विहार लोभी श्रीकुंजबिहारी स्वयं इस प्रेम-कुँज की चाकरी तलाशते है । मूल में यह छिपी हुई प्रेमसेवा की सरस् कुँजी इन्हीं के हाथ जो लगती है , परन्तु सेवातुर मनोहर की सेवानुरागता भी सर्वमेव विकसित भावना है सो ही... अन्य में ऐसी सेवाभाव- स्थिति श्रीमनहर के अतिरिक्त किशोरी जू कृपा से कदापि कहीं कल्पना ही नहीं हो सकती । किशोरी = श्रीमनहर का वह सम्पूर्ण सुख सागर , जिसके एक एक बिन्दु से वह स्वयं सर्वथा अपरिचित रहते है । और मीन बने उस सुख सागर का सम्पूर्ण जीवन श्रृंगार मूल आभूषण होय गए है । श्रीबिहारिणी के रसिकबिहारी प्यारे । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । तृषित । प्रेम की लहरें बावली होती है और इसका व्यसन तो सर चढ़ कर सर्वता को भेद कर बहता है , अतः बारम्बार आप सभी से क्षमाप्रार्थी हूँ , अपने रोग के विवश एक रोगीवत ।

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