कुँज सहजता , तृषित

*कुँज सहजता*

श्रीवृन्दावन । प्राप्त सहज परिवेश को अति-आधुनिकता में बह कर नष्ट न करें तो कुँज सहज ही अनुभव है । आज कुँज के श्रृंगार के विषयों में अनभिज्ञता है क्योंकि कुँज ही हटा दी गई हो तो उसके सहज श्रृंगारों का अनुभव कैसे होगा और वही कुँज प्रदत श्रृंगार नित्यविलासी युगल का सेवा सुख है । वह तो नित्य ही निजकुँज से कुँज रस सुगन्ध और दिव्य श्रृंगार ही उछालते है परन्तु जीव को कॉस्मेटिक शॉप की खोज है ।
सघन एकाग्रता में हृदय की शीतल मध्यरात्रि में भावातुर तृषित रह्वे अपने प्राण  प्रियाप्रियातम हेतू । वर्तमान जीव का भविष्य केवल मशीन पर निर्भर है और  इसलिये वह प्राचीन शास्त्र और सिद्ध सन्तो की वाणी को जब छूता है तो उसे अतितीव्रता से जीवन की सुगन्ध आने लगती है । और सजीवता का उन्माद प्रकट होता है । फिर रसिक वाणी सुनते पढते कुँज.. यह शब्द वह सुन लेता है । श्रीयुगल प्यारीप्यारे के निज रस में तो यही कुँज बिहरण ही मूल विलास-विश्राम है । जहाँ हमारे  श्रीसरकार सहज निजविलास में भरे है । श्रीप्राण प्रियाप्रियतम यहाँ अति निजता में नित्य नवसुख श्रृंगार उत्सवो की कुँज में विलासमय और विश्राममय है । निज प्रेमी के अतिरिक्त अपनी सरससरकार के विलास और विश्राम की तृषा किसी भी हृदय में प्रकट नही होती क्योंकि जीव को अपना विलास और विश्राम ही तो खोजना होता है वह कल्पना नही कर सकता कि श्रीप्रभु दिवारात्रि मेरे हेतू सतर्क खडे नही है । नेत्रहीन के हृदय में भी मन्दिर में श्रीप्रभु सतर्क खडे है क्योंकि जीव को अपनी पौढाई (सुक्षुप्ति) वांछित है ..चेतना के विश्राम हेतू ही प्रपंच से आध्यत्मिक गति हुई है । सो विलासित सरकार की विलसित झाँकी ऐसे हृदय में नही प्रकट होती जिसकी यात्रा निजता हेतू ही है परंतु जिन्हें अपनी निजता श्रीयुगल सेवा में मिलती हो वह धीरे धीरे कुँज निकुँज की सुगन्धों में भरने लगते है ।
वर्तमान आधुनिकी जीव को बाहर सभी आधुनिक भोग और भीतर विशालतम रस दोनों चाहिये । गाँव-वन-प्राकृतिक क्षेत्रों का अपहरण कर बहुमंजिला शहरों की कतार बनाकर जब जीव माँगता है कुँज-निकुँज तब प्राप्त की हुई बाहरी स्थिति सिद्ध करती है कि क्या वह हृदय में कुँज को प्रकट होने में स्वयं के द्वारा बढती बाधा को रोक सकेगा ।
अगर जीव अतिक्रमण - या  भोग विलास की बहु मंजिला कामना ना करें तो धरा पर सहज ही कुँज ही कुँज है जी । लता वल्लरियां फल-फूल हटा कर ही इच्छा रूपी भवन बने है । अभी तक धरती का वह सौभाग्य सत्र नही आया है कि बहुमंजिला भवन ध्वस्त कर प्राकृतिक वन क्षेत्र का विस्तार होने दिया जावें । परन्तु जीव को भीतर वन चाहिये ...वृन्दावन ।
ऐसा नही है कि जीव को लता-वल्लरि फल-फूल से प्रेम है वह इनके अभाव में चित्र से प्रेम कर और रसायनिक सुगन्ध और रस के प्रति कृतज्ञ है । आवश्यकता होवें तो कोई पूजनीय वृक्ष लता हो वह हटाने हेतू तत्पर है । कुछ प्राचीन स्थान वृक्ष लताओं के नीचे बने जीव को मिलें जिससे वह उस वृक्ष-लता के प्रति आदर रख सकें परंतु वनों वृक्षों से सटे ऐसे कई श्रीविग्रह अब सँगमरमर में वासित है । तो जीव ने आवास के नाम पर जो वन और कुँज का ह्रास किया है उसकी भरपाई किये बिना वह आधुनिक शहरी जीवन से कुँज निकुँज रस को छुवेगा कैसे ???
जैसे इस धरा पर कुँज-वन सहज ही है बस मनुष्य की कुमति वहाँ ना पहुँची हो। भीतर हृदय में भी  कुँज स्वतः है ...वह साधन से बनाई नही जाती । अपने द्वारा होने वाले द्वन्द रूपी प्रमाद को रोकना होता है । और यह प्रमाद सभी को विकास दृश्य है जैसा कि मानव जब एक वन को ग्राम फिर नगर फिर महानगर बना कर स्वच्छ जलवायु तलाश रहा होता है यह तलाश उसके हेतू विकास है परन्तु हस्तक्षेप से पूर्व पर्यावरण में आवश्यक सभी तत्व सहज सुलभ होते है वैसे ही भीतर कामनाओं सँग छेड़छाड न हो तो जीवन में भगवत विलास होने लगता है और वह सुंदर होता है उस रस में तनिक कृत्रिम मिश्रण की चाह होने पर ही जीव कुँज की सुगन्ध खो देता है । आज मानव के विकास के परिणाम में जब जलवायु शुद्ध न उसे सुलभ होगी तब वह समझेगा कि प्रपंच को वह सुलझा सका या और उलझा लिया जबकि प्राप्त वृक्ष लताओं और जीवों की सेवाओं सँग हमारा गौरवमय जीवन रहा है । सहजता की जब तक हृदय में माँग नही उठती वही सहजता की नदी दृश्य नही होती असहजता के भोगविलास भवनों को ध्वस्त करते हुये ही सहज हो जाने की माँग प्रकट होगी । असहजता आज हमारा जीवन हो गई है प्राकृतिक सौंदर्य को मिटाकर जैसे हम ..सदा से सहज सुलभ होती जलवायु का व्यापार करने लगते है ...पानी की तरह हवा को प्योरिफाई करने के यंत्र भी घरों में होने लगे है । जबकि जलवायु को दूषित विधि-विधाता ने नही किया । यह महानगरों की रासायनिक गन्ध देह के ही नहीं चेतना के भी रोग प्रकट करती है जैसे कि जीव के हृदय में सहजता का आदर नही रहता । जबकि जीव की यही आधुनिकता उसके भीतर आध्यात्मिक जीवन में भरी होती है उसे रीमोट कंट्रोल की आदत लग जाती है ..तप सम्भव ही नही होता और सत्य को छूने का एक मात्र द्वार तप है । तप अर्थात् प्रतिकूलता का भजनमय आदर ।
सो सहज में कुंज सहज है । बस अपनी करतुत रोकनी होगी । उनकी कृति में भोग-विषय के भवनों की फसल अभी नही उगाई जा सकती । बीज(मन्त्र) सुलभ हो उसके विस्तार हेतू जीवन में भावात्मक अनुकूलता हो तो बीज  अंकुरित हो ही जावेगा तब वल्लरियां होगी । फिर फूल और फिर उनपर भृमर-अलि-तितली होगी । ऐसा नही है कि तितली को खोजना होगा और लाना होगा और इन भृमर तितलियों के समूहों से खेलती कुँजेश्वरी उल्लसित आगमन करेगी परन्तु वह कुंजेश्वरी है और जीव के जीवन से  इंजन की दुर्गंध तो आती है परंतु बगिया के फूलों की सुगन्ध नहीं और सम्पूर्ण सहज परिमण्डल जब होवें ... तनिक भी उनकी कृति में अपना विक्षेप ना हो वह क्षेत्र कुँज हो उठता है । धरा पर जहाँ मानव नही गया है वही कुँज है क्योंकि जहाँ भी वह गया है उसके भीतर का विक्षेप उसने प्रकट कर ही दिया है । सो वह कुँजेश्वरी तितलियों सँग सहज खिलें फूलों से  खेलने हेतू सहज ही आयेगी बस अपनी करतुत न हो (असहजता हटा ली जावें)।  आज मनुष्य सघन से सघन प्राकृतिक वन क्षेत्र में पहुंच ईट पत्थर के कारावास बना रहा है । हम असहज है ...भीतर उपद्रव है सो हमें कुँज मिटाना आता है । और कुँज तो है ही बस छेड़छाड न हो । भोग-विलास की अनन्त मंजिला आधुनिक जीवन शैली भीतर हृदय से झर जावें तो फिर वर्षाकाल में अंकुर फूट पडेंगे । नित्य सत्संग हृदय की सहज कोमल भावलता की सम्पूर्ण सुरक्षा रखता है क्योंकि सत्संग में भगवदीय विलास का आदर है । तृषित । जयजयश्रीश्यामाश्याम जी ।

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