पौढाई (सुखसेज) ...trishit

*पौढाई (सुखसेज)*

जीव विश्राम तलाश रहा है... सीमित जीवनकाल में भी एक बडा हिस्सा निद्रा का है क्योंकि चेतना विश्राम खोज रही है अपनी सुक्षुप्ति तलाश रही है । मूल भोगों में चेतना का एक मूल यह भी भोग है ...विश्राम । भोगविलास या कंचन के महल और विपुल सुख से भरे अवसर पर भी जीव निद्रा का सँग नही छोड सकता चेतना जो विश्राम खोज रही है वह विश्राम चेतना के एकान्तिक विश्राम से पूर्ण नही हो सकता । जैसा की किसी वस्त्र का एक धागा गन्दा हो जावें तो पूरा वस्त्र धोना ही सही उपाय है वैसे ही विश्राम की पूर्णता होगी ...सम्पुर्ण विश्राम पर । श्रीश्यामाश्याम मेरे श्रीयुगल परस्पर  विपरित अनन्त सम्पुर्णताओं में भरकर परस्परता की सेवाओं में है और सभी सेवाओं का उद्देश्य होता है विश्राम । यथा बालक को शीत काल में ढ़ककर सुलाने की सेवा हो रही है कि निद्रा स्वस्थ मिल सकें । और ग्रीष्मकाल में शीतलता को जुटाकर शीतल निद्रा देने की चेष्टा रहती है । स्वस्थ निद्रा के अभाव में स्वस्थ जीवन (जागृति) का अभाव होने लगता है । सो निद्रा जीवन का वह नित्य अवसर है जिसकी एक स्वभाविक आवश्यकता है । अगर योगी बाह्य देह निद्रा को त्याग कर एकासन पर स्थिर होवें तो यह भी एक निद्रा ही है जिसमें विश्राम देहाध्यास से आध्यात्मिक हो गया  है । परंतु विश्राम का त्याग चेतना
करती नही है वह विश्राम पूर्ण होता है पूर्णतम की विश्राम की सेवा करने पर । जहाँ तक जीवार्थ  सृष्टि है श्रीभगवान का मूल स्वभाव-स्वरूप वहां प्रकट नही है क्योंकि जब तक जीव में जीवत्व है तब तक उसकी सेवा में वह एक कर्ता-भर्ता-हर्ता (उद्भव-स्थिति-संहार) स्थिति में प्रकट है । जब वह निर्मल हृदय सँग केवल श्रीचरणाश्रय दास होकर उनकी सेवार्थ उनका अनुभव चाहता है तब उनकी निज लीला का अनुभव उसे प्राप्त होता है । और श्री प्रियाप्रियतम रसिली सरकार की मधुर लीलाओं में नित्य नवविलास है और नित्य नवसुख सेज है  अर्थात् प्रेम के नवीन सुखों का विश्राम । जब तक जीव में जीव भाव है अथवा ऐश्वर्य भाव से भक्ति पथ पर वह है ..उसके भीतर श्रीयुगल सरकार की विलास और विश्राम सेवा का भाव प्रकट नही होगा । क्योंकि तब वह अपने लिये नित्य तत्पर भगवान चाहता है नाकि स्वयं को श्रीरसिली सरकार (श्रीयुगलसरकार) की सेवा में नित्य तत्पर । ऐसा ऐश्वर्य भावुक जीव कभी श्रीप्रभु की कोई बैठी हुई झाँकी देखता है तो उसके हृदय में प्रश्न खडा हो जाता है क्योंकि नित्य खडे श्रीविग्रह दर्शन में उसके भीतर कभी यह भाव नही आया कि यह विश्राममय रह्वे  ...और जब तक इनके विश्राम या विलास की तृषा ना लगें यह उसका बृहद नित्य दर्शन उजागर कर नही सकते । अपनत्व होने पर श्रीभगवान का ऐश्वर्य स्मरण गौण होकर मधुर अनुराग बढने लगता है । बाहर के जगत में भी कोई सत्ताधिकारी निज जीवन के विलास या विश्राम की माँग अपनी प्रजा से नही करता । जबकि सेवक को विलास और विश्राम की संयुक्त ही सेवा करनी होती है क्योंकि सेवक को अनुभव है विश्राम पुष्ट होगा श्रीसरकार के विश्राम पर ही । हृदयेश्वर की पौढाई की समस्त लीला झाँकी फिर खिलने लगती है और उस पौढाई का दर्शन ही सेवक की अपनी सम्पूर्ण पौढाई है ...वस्तुतः श्रीयुगल का सुख विलास विश्राम(पौढाई) दर्शन ही सम्पुर्ण विश्राम की सम्पुर्णता है ।
जैसे माँ अपने शिशु के विश्राम से पूर्व सो नही सकती और शिशु का जीवन जितना महत्व रखता है उतनी ही निद्रा की भी माँ को चिंता होती है वैसे ही श्रीयुगल सरकार की दास्यता प्राप्त दिव्य स्थिति में उनके विहार से अपना विहार और उनके शयन से अपना शयन है । जब तक मूल स्थिति को विश्राम न हो तब तक शेष को कैसे होगा???
सखी को अपनी निद्रा का सुख मिलता है युगल की पौढाई में । इस पौढाई हेतू सम्पूर्ण कुँज की सम्पूर्ण भावनाओं को सहजता से पौढाई सेवा करनी होती है ...श्रीयुगल की प्रीत की अलसाई समीर की छुवन से एक सघन अलसाया अनुराग भरने लगता है भीतर-बाहर श्यामलता - शीतलता आदि सजने लगती है । जैसा कि माँ शिशु की पौढाई हेतू सब काज छोड आँचल में ढक या अन्धेरा रखते हुये प्रेम भरी थपकी सँग कोमल भावों से निद्रा सजाती है और स्वयं सोने के भाव में भरकर शिशु को सुलाती है । अगर वह स्वयं ना अलसावे तो शिशु में चंचलता के विपरित निद्रा हेतू आलस्य ना आवें । सो अपने आलस्य के ना होने पर भी शिशु के विश्राम हेतू माँ में आलस्य भरने लगता है ।
वैसे ही पौढाई हेतू सघन युगल प्रीति भरी सखी सघन युगल प्रीति की सघन अलसता में रंग कर सघन विलास रागों-अनुरागों से सेवा सजाती है ।
यहाँ सखी के हृदय की चौकसी की आभा सुर्य भाँति न होकर ...छिपती बढती कलाओं में चन्द्रवत होती है ...शीतल ...श्यामलता से हल्की सी झांकती सी चौकसी । विलास विश्राम की सघनता एकाग्र अनुराग हेतू एकान्त चाहती है सो अनन्त सखियाँ सेवामय होकर भी जैसे युगल हिय के विहार-विश्राम हेतु होकर भी खोई सी छिपी सी वृतियों सँग ..सघन विश्राम हेतू ..सघन भरी सी होती है । तृषित । युगल सेवार्थ सखी युगल के परिमण्डल में भीतर बाहर भरी होती जैसे यहां वह हमारे हेतु शीतल पवन-सुगन्ध वत नित्य सँग है । युगलविश्राम तृषा में युगल सुख की तृषित सखियाँ सघन रागात्मक- भावात्मक पौढाई से श्रीयुगल की विलास सुधा की गहनता से युगल पौढाई रचती है । (पौढाई पर एक सखी जू एक प्रश्न हेतू लिखित भावना) जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । तृषित ।

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