श्रद्धालु और साधक , तृषित
श्रद्धालु अपनी श्रद्धा से स्वतंत्र नही हो सकते ।
और श्रद्धाहीन श्रद्धा रख नहीं पाते ।
श्रद्धालु स्वयं तो सर्वत्र श्रद्धा रखना चाहते है और सबसे मिली हुई श्रद्धा से भी अपने हिय में सबके प्रति श्रद्धा को ही बढाना चाहते है । अर्थात् श्रद्धा बढे यही श्रद्धालु की माँग होती है ।
साधक को सर्वत्र सिद्ध साधुता देखनी चाहिये । साधु को सर्वत्र साधुता में सेवामय रहना है साधु जिस सेवा में है वह सभी साधक है परन्तु उनकी दृष्टि में वह मात्र साधक और शेष सिद्ध है ।
अर्थात् साधु वह है जो साधना की भावना को पा चुके है ...सिद्ध हो गये है ...वह है ऐसे साधक के सँग जो आगे बढ रहे है और चढ रहे है । साधु ऐसे साधकों को कुएँ से निकालने का प्रयास करते हुये भी स्वयं साधक है और जिनके प्रति सेवामय है उनमें साधुता अर्थात् सिद्धता का दर्शन है ।
अर्थात् दासी को केवल दासी दृश्य है ...भले सन्मुख जीव स्थिति हो । परन्तु दासी के नयन सर्वत्र अपने अति सघन दासी ही पाती है और उनके प्रति सेवामय रहती है । जबकि जीव स्थिति दासी (सखी)में भी दासी स्थिति को देख लें यह ही साधुता है । अर्थात् श्रीहरि का व्यापक अपनत्व पाकर उनकी यथेष्ठ सेवा का प्रयास । सेवा के सूत्र नित्य नवीन रितियों से भावुक के जीवन में आते है । सम्पुर्णत: सेवा होना ही है और सेवा से पूर्व सर्वत्र अपने से अद्भूत दिव्य महत् स्थिति की मान्यता का सिद्ध होना भी अनिवार्य है । अपने से हीन के प्रति दया हो सकती है । अपने से दिव्य स्थिति की ही हम सदैन्य सेवा रख पावेंगे । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
साधु (सिद्ध) स्थिति कैसे अन्य की विपत्ति में भी दिव्य भावना करें । अर्थात् स्वयं कुएँ के ऊपर होकर नीचे से निकलने वाले के प्रति कैसे भगवत भाव रह्वे यह ही श्रद्धामयता है । अगर भीतर अटल दासता है तो नित्य स्वामी का सँग सुलभ ही है । सन्मुख आह्लाद (भक्ति) से शेष सच्चिदानंद स्थिति होने पर वैसी ही पीडा होनी चाहिये जैसे कि वानरों को श्रीराम की सेवार्थ हो रही । सिद्ध स्थिति सेवा करें वह सेवा वांछित स्थिति निश्चित निम्न दिखाई देगी परंतु दासता सिद्ध होने का गौरव होगा कि वहाँ मनुष्य नहीं राम दर्शन होगें और स्वयं में सिद्धता नहीं सेवामय वानर स्थिति रहेगी ।
जिसे प्रतिक्षण से सघन रस लेना हो उन्हें प्रति क्षण आया ही सघन रस देने हेतु है । सम्पुर्ण नाटक को उनका पाने पर अति सघन प्रपंच भी भावरस का वर्धन ही करता है । भीतर के दोषों को मिटाने का सरल सुत्र है कि वह अगर कहीं भी दिखे तो अपने ही है । सम्पुर्ण संहार लीला भी सम्पुर्ण उद्भव (प्राक्ट्य) लीला रचती है । सो सारा खेल दृष्टि भर में है प्रति विचित्र प्रापंचिक स्थिति से कलुषता को मांजा जा सकता है जैसा कि राख से बर्तन मांजा जाता रहा था । जीवन में राख (दर्शनमय विकार) है अर्थात् अपना मज्जन शेष है । वरण फूल जब होगें तब भीतर प्रफुल्लित हियकुँज होगा । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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