धरा और सौंदर्य तृषित
यही धरा अमृत के सरोवर प्रकट रख सकती है । यहाँ स्वर्ण वर्षा हो सकती है । फल-फूल रस पूर्ण झर सकते है । सुरक्षा हेतु शस्त्र केवल गुरूवाणी हो सकती है ।
जितना भी द्वन्द प्रकट है मिट सकता है ...प्रति वृक्ष में कल्पवृक्ष और धेनु धेनु कामधेनु हो सकती है । सर्व सिद्धियाँ सेवार्थ दासी रह सकती है । सब सम्भव है अगर सहजता प्रकट रह्वे ... निष्काम प्रीति हो और कोई न्युनतम कामना ना हो । जल की बिन्दु बिन्दु और रज की कण-कण का आदर हो । दीन से दीन के प्रति हृदय भगवत स्वरूपवत सेवार्थ संतप्त रह्वे । सत्य का अनुभव जीवनवत प्रकट हो अर्थात् सभी सहज ही सम्पुर्ण जीवनलीला को श्रीप्रभू हेतु भर कठपुतली हुये इस अनुभव से क्षणिक ना छुटे जीवन को निवेदित कर रहे हो तब दिव्य लोकों का दिव्य श्रृंगार प्राकृत इंद्रियों से अनुभव हो सकता है ।
धरा शक्ति को कोई आपत्ति नही रस को प्रकट रखने में ... रत्नों के पर्वत खडे करने में ...परन्तु दुविधा की कहीं सृष्टि होती है तो हमारे विकार भरे मन में । भोगार्थ स्वार्थ जब जीवन हो जाता है तब स्वर्ण-रजत रूपी देदीप्य धरा अपना सौंदर्य छिपाने लगती है । वरण प्रकृति स्वभाव से कुछ छिपा नही सकती ...वह माँ स्वयं के वात्सल्य को असफल पाती ही है जब शिशु के रूदन पर उसे रस पिलावें । प्रकृति रूपी माँ रूदन पूर्व तुष्टि-पुष्टि पोषण रचना चाहती है । परन्तु जीवन में प्रकट पृथक् भोग-विलास के दोहन से सहजता के मंथन हेतु नित्य प्रकट रस श्रृंगार गोपन होने लगता है । यह धरा(भूदेवी) श्रीहरि हेतु ही विलास रच पाती है । जब जीव में पृथकता भरा जीवन प्रकट रहता है तब उसे दोहन खोदन करना होता है जिससे वह पृथकता थक जावें । आज भी धरा स्वर्ण हो या कोयला किसी राजा या सेठ को नही उनके किसी दीनता भरे सघन पीडाओं से भरी खदानों में श्रम में थकते श्रमिक को देती है ...श्रमिक या दीन को सँग लिये बिना आज भी धरा अपना रस या सौंदर्य नही देती है क्योंकि पृथकता का अनुभव और पृथक भोग विलास की माँग जितनी सघन न्यूनतम होगी धरा उसे ही श्रीहरि हेतु विलास प्रकट करेगी । क्योंकि वह श्रीहरि की ही विलास धरा नित्य है । वैभव-विभुता का वास दैन्य-दीनता में है । अगर प्राणी धरा को श्रीहरि की निजरानी मान नमन करें तो वह धरा के प्रति आदर से भरा होगा जिससे वह पृथक् भोग हेतु धरा और धरा के सौंदर्य का क्रय-विक्रय नही कर सकेगा । जिसे सर्व में स्वामी के निज विलास की सौरभ मिल रही हो वह स्वयं को नित्य-निर्धन दास पाता है । सो जितनी अपनी पृथकता पक्की होती जाएगी ..रस हेतु उतनी तृषा की माँग बढानी होगी पृथकता के गलन हेतु और उतने अधिक ताप पर तप कर कुन्दन पाया जा सकेगा । तृषित । ...सो लालसा अति सघन होने पर रस वर्षा नित्य व्यापक सुलभ है । और लालसा अभाव में सुलभ रस-अमृत (प्रियाप्रियतम) की वन्दना में भी हिय से उनके सौन्दर्य सेवार्थ सुगन्धित अश्रुमालिका नही झर पाती । जयजय श्रीश्यामाश्याम । तृषित । रागरागिनी का सघन अनुराग सहज ही पक्षियों के कलरव में भरा होता है जिसे लोलुप्त को अति स्वर अभ्यास से छुना सम्भव होता है ।
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