व्यसन होने हेतु , मदिरापान आदत हो जावें । बारम्बार पीने पर जीवन खिलता है । शब्द के बाह्य व्यवहार पर मत जाइए उसके स्वभाव को पहचानिए सुरा या मदिरा तो अमृत और सोम रस का भी पर्याय है जो मदिरा बाजार में बिक सकती हो , वह तो प्राणों का आंदोलन हो ही नहीं नहीं सकती । असली मदिरा है ... प्रीति और प्रीति का नवीन होता उत्स , हाँ मधुर-मधुर श्रृंगार प्राण प्रियतम के श्रृंगार की अखण्ड और वर्द्धित लालसा ही जब पोषण हो उठे तब मिली है किसी को वह मदिरा , जो है ख़ालिस मदिरा । असली या शुद्ध किसे प्रिय नहीं , तो जीवन को रस लालसा में भीगोकर और नित्य ही भीग-भीग कर पीजिये और मदिरा । रस-मदिरा सँग प्रथम मिलन से भयभीत नित्य सँग नही हो पाता सो प्रथम स्फूर्ति नित्य बढ़ती हुई प्रकट रहवै इस हेतु पान हो श्रवण रूप । व्यसन होने पर जो व्यसन भरा जीवन मिलेगा , वह केवल व्यसनी ही अनुभव करता है । मदिरा ध्वनित होता है रस को आदत वत नित्य रखने पर , (आदत जैसा जल पीने आदि की है ) लौकिक व्यसनी तो मृत्यु देने वाले व्यसनों को जीवन की दवा मानते है , विश्राम जुटा कर व्यसन करते है , कुछ लोक व्यसनी ऐसे भी होते रहे है जो विश्राम...