सहज प्रेम का सहज श्रृंगार , तृषित
प्रेम का श्रृंगार सहज है
प्रेम सहज छूने हेतु सहजता के सिंधु में पूर्ण मीनवत सुख होना होगा
फिर यही प्रेम जीवन से निज रस-भोग- श्रृंगार निकाल सकेगा
प्रेम में निज प्रेमास्पद के सुख का पूर्ण सामर्थ्य है , परन्तु प्रेम वरण उसका करता है जो सदैव प्राणधन में अतीव प्रेम निहार पा रहा हो । जिसके भी नयन प्रेम रूपी रस में डूबे है उसे अपने प्राण की व्यापक झकोरें की सुरभता प्रफुल्ल कर रही होती है ।
प्रेम में डूबी स्थिति अपने प्रियतम के हृदय में जीवनवत है सो व्यापक प्रियतम हिय में उत्सवित तैरती मीन सी स्थिति जो छूती है वह सब श्रृंगार सहज ही प्रेम को सुख देता है । अर्थात प्रेमी का वास प्रेमास्पद हृदय है जिसे वह अनुभव कर पा रहा होता है सो वह जीवन वैसे ही कमनीयता को छू रहा होता है जैसे पंक(कीच) आश्चर्य में पंकज का सँग करता है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
जब तक अपनी पृथक उपस्थिति है तब तक रस नहीं मिलता ।
अर्थात नदी को यह लगें कि वह रस दे रही है तब वह रस लें नही सकती । उसके प्रेम स्वरूप ही रसभूत होकर उत्सवित जीवन दे रहे है यह अनुभव ही चहुँ ओर उत्सव रच देता है ।
दाता को याचक चाहिये , और याचक को दाता । दाता अपना मानते हुए साधन जुटा कर देने को तैयार भी और लेने को कोई ना आवें तो दाता का देना सिद्ध ही नहीं होता । अर्थात पक्षियों को चुग्गा डाल भी दे और पक्षी ही ना आएं तो अपने में कुछ देने की सिद्धि नहीं होती , प्रेमी यही बात स्पष्ट समझता है कि वह लेता-देता किससे है । क्योंकि प्रेमी होने का तात्पर्य है प्रेमास्पद के प्रेमरस में डूबा जीवन । युगल तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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