उत्स । तृषित
एक निकुँज में सखिजन को सेवा उन्मादित उत्स ही उत्सव है ।
उत्स बढ़े , उत्साह बढे । हृदय उत्सवित श्रृंगारित रहवै
आनन्द का समूह , अनन्त रसों के आनन्द की उछालें ...उत्सव है
केवल आनन्द नहीं ...आनन्द के तूफान और आनंद की बाढ़ ।
अति प्रफुल्ल आनन्द होने पर ही सँगभूत को आनन्द मिलता है और सहज ही वह उछल जाता है । जैसे प्रफुल्ल उछलती नदी या झरणे में उतरने पर निजप्राण भी उन्मादित होकर उछलने लगते है । आनन्दित होकर ही आनन्द को खेला जा सकता है ।
जो भी चाहिए ...दे दो । मिल जाएगा ।
अपनी स्थिति जांचने का दर्पण है यह कि
प्रेमी के भीतर चटपटी लगी होती है कि मैं क्या दे दूं ..क्या दे दूं
स्वार्थ के भोग जीवन में विपरीत स्थिति रहती है कि क्या लें लूं , क्या क्या लें लूं ।
Comments
Post a Comment