भक्ति की लेन देन , तृषित
जीव के पास उन्हें (श्रीहरि) देने को भक्ति है । यह श्रीहरि का निज आह्लाद है , परन्तु जिस भाँति गौ अपने भीतर के दूध का स्वाद लेना चाहती हो तो उसे दोहित कर निवेदन किया जा सकता है । वह दोहन ही भक्ति है । अर्थात निज आह्लाद का पान ।
यह भक्ति रूपी प्रीति वही निक्षिप्त करते है और फिर रस लेते है । जिस भाँति बैटरी चालक खिलौने में हम ही बैटरी लगा कर बालक को रिझाते है ।
जिसके भीतर उन्हें रिझाने की लालसा लग गई हो वह उनके द्वारा कृपा से ही इस लालसा को छू पाया है । वरण बिन्दु में सिन्धु को लाड देने के लिये उत्स कैसे उठेगा । सो उन्हें सुख देने या रिझाने की वृत्ति ही भक्ति है जिसका वर्धन वही करते है , इसे पूरे खेल में जीव तो केवल उपकरण भर है । इस उपकरण में सदुपयोगिता प्रकट होती है , पृथकत्ता के मिटने से । अपने प्राणवल्लभ की कठपुतली हम अपने प्राण को रीझा नही रहे होते । वह रिझावण प्रकट हो , कठपुतली स्वयं को कठपुतली मान सकें और श्री हरि को जीवन रूपी रस से रीझा सकें इसे ही शास्त्र या सत्संग आलोड़ित करते हुए भरते है । भगवदीय प्रभाव के अनुभव से अहंकार जब निर्बल पड़ता है तब ही हृदय गलित होने लगता है और निज अभाव की वेदना से महाभाव सेवा रूपी भक्ति प्रकट होती है । बिन्दु जिस भाँति सिंधु का संगी है त्यों ही दैन्यता ही विभुता की अर्चक हो पाती है । कामी में श्रीहरि से केवल कामनाओं का सम्बन्ध अधिकांश रहता है , और जो श्रीहरि से केवल कामनापूर्ति चाहता है वह नित्यदास के सुख से वंचित है , क्योंकि वह कहीं न कहीं ऐश्वर्यमुखी उपासना है जिसमें आंशिक दैन्यता कभी सत्ता पाने के लिये उठी है जबकि वास्तविक पथिक में यहीं दैन्य प्रति क्षण बढ़ता है क्योंकि वास्तविक पथिक जानता है प्रीति वर्द्धन लीला रूपी गोवर्द्धनिय आह्लाद मेरे श्रीगिरधर ने धारण किया हुआ है । प्रेमी की प्रति प्राप्ति श्रीहरि की अति प्रगाढ़ करुणा है सो अपने श्रीहरि की इस प्रीति का उत्स बढ़ता है । पूर्व में यह भी लिखा गया है कि उनकी प्रीति पिपासा ही सहज है , जिसकी आंशिक बिन्दु जीव में दृश्य है । तृषा के लिए तृषित वहीं है सो तृषा (लोलुप्ति) की महिमा भी वहीं प्रकट अनुभव करते है । सो प्रथम ही तृषा बिन्दु से जीव का अभिषेक करते है सत्संग द्वारा । युगल तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
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