रस झँकृतियाँ , तृषित
यह रसझँकृति माधुरी मुद्राएं जब सन्मुख होती है नृत्यविलासित होती है , नृत्य प्रकट होता है रोम - रोम से ...क्षण-क्षण में । नाच जाती है रसना छू कर झुनझुनाहटें । बातें करती नहीं , गाती ही मिलती है सुक-सारिका- कोकिलायें । चलती नहीं , नाचती ही मिलती है तितली फूलों की सुगन्धों सँग , पतंगें दीपक की लौ सँग ।
रस जब छुता है तब हृदय उछलता है । इतना प्रचंड वेग लेकर भी जीवन फूटता नहीं है , पर गरजता-बरसता कुछ भीतर ठहरता नहीं है । अलबेली यात्राएँ खुलने लगती है , अपनी हरकतें पराई सी लगती है । स्पर्श चाहिए होता है हृदय को अपनी प्रति श्वांस में भीतर ही किसी अनहद का । अपनी ध्वनि से सुगन्ध चाहिए होती है प्राण स्वरूप रसिलीमाधुरी जोरी के और और पुलकन की । यह प्रेम है री , चलता नहीं है ...नाचता है । यह प्रेम है , मैं तो तनिक ही ना हूँ ... पर नाच तो रही ही हूँ री । रिझावन हूँ री , रीझे प्राण युगल की
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