सौंदर्य-छाया ...तृषित

अपना मल स्वयं शीघ्र मिटता है । जैसे अपना स्नान और श्रृंगार स्व से सुंदर होता है क्योंकि अपने नयन अपने में अभाव नहीं देख सकते । सो प्रभाव आश्रय से प्रभाव ही प्रतिबिम्बित हो तब सुख बढ़ता है । प्रेमास्पद सँग है यह छाया मानती है । स्व का भी सँग हो छायावत जैसे छाया स्वयं को निहार रही हो प्रेमास्पद स्वरूप से श्रृंगारित । मैं छाया हूँ वह स्वरूप है । वह रहवै , मैं छुटी रहूं यह स्वरूप-स्वभाव का फूल के खिलना जैसे प्रबोधन है ...स्वप्रकाशित कलि में स्वप्रकाश के सँग से ठिठुरती कोमलता बढ़ती है , वह जितना सिमटती है भीतर का यह अनुराग उतना द्रवित होकर प्रकट होता है । सहज पुष्प जानता है कि वह है जब तक खिल रहा हूँ , जब मैं हूँ तो झर-झर रहा हूँ । वही झरण से छूटना स्वरूप का जीवन है । युगल तृषित । प्रेमास्पद जब हिय-आरूढ़ हो तब कोई नवेली क्या बतावें और क्या छिपावें । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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