प्राणसेवा-प्रवाह , तृषित

प्रेमास्पद ही अगर कर्ता-भर्ता है , तो भावना प्रकट होने से पहले ही उनकी है ।
शरणागत शरण में है , वह उनके जीवन रूपी बाग का सेवक है और प्रति फूल बाग का खिलने से पूर्व प्रेमास्पद का ही है अगर बाग ही प्रेमास्पद का है तब ।
जिनकी यह वस्तु है उन्हें अर्पित हो तब उन्हें उनकी ही सेवा जानकर , उनकी ही प्रधानता में केवल वस्तु होकर जीवन को दे दिया जाता है तो अपनी वस्तु और वस्तुओं द्वारा प्रकट उपचार किसे प्रिय नहीं होते ।
उनका रस उन्हें देते ही अपनी स्थिति स्पष्ट हो जाती है , उनके विशेष सँग से सविशेष वह शेष केवल सेवा तत्व है ।
जैसा कि श्रवण रस देने हेतु उन्हें ही भीतर विराजमान कर भावरस निवेदन करने हेतु उन्हें मुख्य रस स्थली दे दी गई होती है । जैसा कि सिनेमा में युगल सहित युगल परिकर बैठे हो और रस लें जबकि जिनका वह सिनेमाघर है वह केवल बाहर सेवा में हो । समुचित उत्सवित श्रवण श्रीयुगल को भीतर होगा । अब पथिक यह भी पूछते है कि पता कैसे चले कि उन्हें सुख हुआ या नहीं , किसी भी सेवा से स्पष्ट जो अनुभव कर सकें कि मेरा उत्स तो एक सीमित है जबकि भीतर तो उत्सवित तरंगें बढ़ रही है तो वह बढ़ती हुई तरंगों को युगल उल्लासवत मानकर उनका निज मान कर रस लेने की अपेक्षा अपने ही हिय की तरंगों को उनकी पाकर उनकी सेवा-सत्कार जुटाएगा जिससे रस-उन्माद और उन्माद में उन्मादित उन्माद रस-सेवक ...रस से शेष रस का सेवक है । जो रस का भोग चाहता है उससे ही रस दूर है , जो रस की सेवा जुटा सकें वही वह थिर है और विलस रहा है । छोटे शरीर के भक्षक सँग भी पक्षी नहीं खेलते जबकि गौ-गज आदि का स्वरूप बढ़ा होने पर भी उन पर आरूढ़ होकर खेलते है सो जैसा इष्ट तत्व है वैसा ही वहन शक्ति भरे वाहन तत्व है । प्रेमी ही है , जिसके नयन स्वामी से अधिक स्वामी के सुख को देखते है । सो उस हृदय में उनके आश्रय विषय में होकर उन स्वामी का  ही आश्रय-विषय रूपी सुख तत्व चिन्तनीय उद्भव होता है , जिससे प्रेमी अनुभव कर सकता है कि यह अश्रु - यह ध्वनि - यह भावना भीतर विराजित श्रीप्राण सरकार की है अथवा ...वह इन रस भोग सेवाओं को छुए भी ना है । प्रेमी की मान्यता है कि उसके जीवन की श्वांस और कण-कण उनका भोग्य प्रसाद होकर ही मिल रहा है । इसलिये रस रीति जीव को प्रसाद की आदत लगाना चाहती है जिससे भोग नहीं , सेवा से आरोगी भोग थाल की किंकरियों को पाकर सुख-किंकरी की लोलुप्ति में किंकरी रहा जावें । पक्षियों को दाना डालने पर , उसे ना चुगने पर पीड़ा होती है वैसे ही निज जीवन की प्रति स्थिति जब चुग ली गई होती है तो जो पोषण मिलता है वह सेवक ही अनुभव कर सकता है क्योंकि पोषण सेवा से ही प्रकट होकर बढ़ता है , सेवा पूर्ति तत्व है ।
भारतीय रीति से  उत्सवों में प्रसादी की पंगत सेवा रहती थी , जिसमें आगन्तुक यथा सामर्थ्य प्रथम कुछ पंगत सेवा करता था फिर जब वह स्वयं सेवा उपरांत पायेगा तो केवल पेट भरेगा , क्षुधा तत्व तो भोग-परोसने की सेवा से सिद्ध हो जाएगा । जब जीव मात्र की सेवा से ही धर्म सिद्ध हो जाता है , तब श्रीहरि ही सदृश्य विलसित सँग हो ...तब प्रेम को जो भावसेवा सिद्धि मिलती वह अवर्णनीय है । यह लला और इनकी ललना नित्य है , सो प्रेमी सर्व सँग प्राण के सुख को ही खेल पाता है और प्राणसुख के लिये सर्व खेल खेलता है , जिस जीवन रूपी बाग में प्रेमी खड़ा है यह उसे स्पष्ट पता है कि वह यहाँ तक आया कैसे... विशेष से शेष को चुनना ही निज-स्वभाव प्राप्ति है ...निज स्वभाव की तृषा बिन्दु है और उन्मादित रससिंधु है सो चींटी जानती है कि वह अकेले शक्कर का पहाड़ नहीं चढ़ सकती । शहद के सरोवर से मधुमक्खी सारा मधुसरोवर नहीं ले जा सकती । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।
प्रेमी के मकान में भगवत मूर्ति नहीं होती । दिव्य रसिली सरकार की रसिली कुँज में वह स्वयं मूर्त सेवावत होता है (अर्थात निज आवास भी उनकी ही कुंजस्थली रहवै और उनके कुँज की सेवा रहवै)
प्रेमी के पास अगर सच में प्रेम है तो कितना ही अभाव होवें , उसके सेवा द्रव्यों में प्रेम भरी विशेषता होगी ही होगी , वह विशेषता प्राप्त जीवन ही निर्विशेष सरस् सेवा तत्व है ।
अपना अभाव बढ़ेगा तब ही उनका बढ़ता हुआ प्रेम प्रवाह प्रकट होगा । उन्हें हिय में बढ़ने हेतु हिय सरोवर को और खोदना है , वह हिय रूपी पात्र का विस्तार होगा निज-अभाव से । अपना अभाव ही उनके प्रभाव का दृष्टा है । अर्थात सविशेष पूर्णतम वह , पूर्ण में शेष अति शेष यह । निज अति शेषता का प्रकट बोधन भी शेष शरणागति से होता है । श्रीहरि का सेवात्मक तत्व ही उनकी सेवा रचता है , जिसे यह अनुभव है वही इस सेवा उत्सव में भीगी झरण है । कहीं भी इस रस प्रवाह से पृथकत्ता खड़ी हो जाएगी वही रसभंग स्थिति है । निजता यही है कि उनके सुख की नन्हीं-नन्हीं गूँथने अति निजतम प्राण-प्रवाह है ।

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