चाटुकारी और महिमागान , तृषित

चाटुकारी और महिमामृत गान में भेद यह है कि चाटुकार में पृथक सत्ता और वंदना के प्रतिफल की इच्छा है ।
सहज गुणानुवाद प्रतिकूल स्थिति में भी प्रकट होता है । पुरस्कार हेतु गुण-रूप महिमा गान उस महिमा में अपनत्व नहीं है ।
तिरस्कृति या प्रतिकूलता पाकर महिमा गान में रहना ही अपनत्व की महिमा से उठा गीत है ।
अपना अभाव नित्य बढ़े , उनका प्रभाव नित्य बढ़े तो चित्त से श्रीहरि-महिमा मिटाए नहीं मिट सकती ...
निजप्रेमी की महिमा का अभ्यास नहीं हो सकता वह जीवनवत प्रकट रहती है ।
चाटुकार द्वारा जो वंदना होती है वह कीर्ति पाकर मौन हो जाती है और प्रेमी के गीत को ताली की गूंज नहीं , प्रेमास्पद की पदतली ही सुख देती है ।
सो यहाँ अगर मेरे द्वारा वन्दना से कोई मुझतक ही पहुँचे तो वह मेरे द्वारा निश्चित चाटुकारी ही होगी जिससे उनके द्वारा केवल मेरा मनोरथ सिद्ध हुआ है ।
परन्तु पुकार सहज है , वंदना में रूदन सच्चा है तो कोई मुझे उसके परिणाम में प्राप्त करे यह इच्छा भी अभिशाप लगेगी ।
सहज महिमा गाई जावें तो सहज लीलानुभव ही प्रकट होगा । जो स्वयं के प्राकृत जीवन आदि से बद्ध आसक्त है वही चाहेगा कि मेरे प्रेमास्पद के प्रेमी उनकी ओर से मेरी ओर झाँके , जबकि सहज प्रेमी तो अपनी ओर ताकने वाले से भी अपेक्षा रखते है कि वह उस हृदय के प्रेमास्पद श्रीप्रियतम को निहार सकें ।
सुग्रीव की वंदना में निज लाभ (सत्ताप्राप्ति) हो सकता है , बाली ने भी प्रतिकूल स्थिति (मृत्यु पाते हुए) वंदना की है और सहर्ष श्रीरामाश्रय में प्राण उत्सर्जन स्वीकार किया है । सो वास्तविक वंदना में विशुद्ध वंदना है अन्य अभिलाषा-शून्य ...
नाम महिमा के आचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी विपरीत स्थिति में नामकीर्तन कर सकें सो नाम महिमा के आचार्य है । चाटुकार नित्य नहीं होता ।
(श्रीहरि की चाटुकारी नही हो सकती क्योंकि उनकी ही मात्र महिमा सत्य है , सो यह चाटुकारी भी हानि नहीं है परन्तु प्रेम में होने पर स्वयं से पृथक प्रेम नही हो सकता , सो प्रेमी को जो निजता का पोषण मिलता है वह स्वप्रेमी जीव को नहीं मिल पाता क्योंकि उसका स्वत्व अति लघु है )
प्रेमी श्रीहरि-आश्रय से स्वप्न में भी मुक्ति नहीं चाहता
चाटुकार केवल आश्रय ही नहीं चाहता । आश्रित से आश्रय सुख रस की सुगन्ध आ सकती है ।

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