मीरा चरित ३
[11:18pm, 05/07/2015] Rakesh Bhatt Pryag Fb: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (33)
क्रमशः से आगे..................
अक्षय तृतीया का प्रभात ।प्रातःकाल मीरा पलंग से सोकर उठी तो दासियाँ चकित रह गई ।उन्होंने दौड़ कर माँ वीरकुवंरी जी और पिता रत्नसिंह जी को सूचना दी ।उन्होंने आकर देखा कि मीरा विवाह के श्रंगार से सजी है ।
बाहों में खाँचो समेत दाँत का चंदरबायी का चूड़ला है ।( विवाह के समय वर के यहाँ से वधू को पहनाने के लिए विशेष सोने के पानी से चित्रकारी किया गया चूड़ा जो कोहनी से ऊपर (खाँच) तक पहना जाता है ।गले में तमण्यों, ( ससुराल से आने वाला गले का मंगल आभूषण ), नाक में नथ, सिर पर रखड़ी (शिरोभूषण) , हाथों में रची मेंहदी , दाहिने हथेली में हस्तमिलाप का चिह्न और साड़ी के पल्लू में पीताम्बर का गठबंधन , चोटी में गूँथे फूल ,कक्ष में फैली दिव्य सुगन्ध -मानों मीरा पलंग से नहीं विवाह के मण्डप से उठ रही हो ।
" यह क्या मीरा ! बारात तो आज आयेगी न ?" रत्नसिंह राणावत जी ने हड़बड़ाकर पूछा ।"
" आप सबको मुझे ब्याहने की बहुत रीझ थी न , आज पिछली रात मेरा विवाह हो गया ।" मीरा ने सिर नीचा किए पाँव के अगूँठे से धरा पर रेख खींचते हुये कहा - " प्रभु ने कृपा कर मझे अपना लिया भाभा हुकम ! मेरा हाथ थामकर उन्होंने मुझे भवसागर से पार कर दिया ।" कहते कहते उसकी आँखों से हर्ष के आँसू निकल पड़े ।
" ये गहने तो अमूल्य है मीरा ! कहाँ से आये ?" माँ ने घबरा कर पूछा ।
" पड़ले ( वर पक्ष से आने वाली सामग्री याँ वरी ) में आये है भाबू ! बहुत सी पोशाकें , श्रंगार ,मेवा और सामग्री भी है ।वे सब इधर रखे है ।आप देखकर सँभाल ले भाबू !" मीरा ने लजाते हुये धीरेधीरे कहा ।"
पोशाकें आभूषण देख सबकी आँखें फैल गई.......... ।जरी के वस्त्रों पर हीरे -जवाहरत का जो काम किया गया था - वह अंधेरे में भी चमचमा रहा था ।वीरमदेव जी ने भी सुना तो वह भाईयों के साथ आये ।उन्होंने सब कुछ देखा ,समझा और आश्चर्य चकित हुये । वीरमदेव जी मीरा के आलौकिक प्रेम और उसके अटूट विश्वास को समझ कर मन ही मन विचार करने लगे -" क्यों विवाह करके हम अपनी सुकुमार बेटी को दुख दे रहे है ? किन्तु अब तो घड़ियाँ घट रही है ।कुछ भी बस में नहीं रहा अब तो ।" वे निश्वास छोड़ बाहर चले गये ।
मीरा श्याम कुन्ज में जाकर नित्य की ठाकुर सेवा में लग गई ।माँ ने लाड़ लड़ाते हुये समझाया -" बेटी ! आज तो तेरा विवाह है ।चलकर सखियों ,काकियों भौजाईयों के बीच बैठ ! खाओ , खेलो , आज यह भजन -पूजन रहने दे ।"
" भाबू ! मैं अपने को अच्छे लगने वाला ही काम तो कर रही हूँ ।सबको एक से खेल नहीं अच्छे लगते ।आज यह पड़ला और मेरी हथेली का चिह्न देखकर भी आपको विश्वास नहीं हुआ तो सुनिए ........
माई म्हाँने सुपना में परण्या गोपाल ।
राती पीली चूनर औढ़ी मेंहदी हाथ रसाल॥
काँई कराँ और संग भावँर म्हाँने जग जंजाल ।
मीरा प्रभु गिरधर लाल सूँ करी सगाई हाल॥
परण्या -परिणय अर्थात विवाह ।
" तूने तो मुझे कह दिया जग जंजाल है पर बेटा तुझे पता है कि तेरी तनिक सी -ना कितना अनर्थ कर देंगी मेड़ता में ? तलवारें म्यानों से बाहर निकल आयेंगी ।" माँ ने चिन्तित हो कहा ।
"आप चिन्ता न करे , माँ ! जब भी कोई रीति करनी हो मुझे बुला लीजिएगा , मैं आ जाऊँगी ।"
" वाह , मेरी लाड़ली ! तूने तो मेरा सब दुख ही हर लिया ।" कहती हुई प्रसन्न मन से माँ झाली जी चली गई ।
क्रमशः ......................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[11:18pm, 05/07/2015] Rakesh Bhatt Pryag Fb: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (34)
क्रमशः से आगे .....................
गोधूलि के समय बारात आई ।द्वार -पूजन तोरण-वन्दन हुआ ।चित्तौड़ से पधारे विशेष अतिथि और मेड़ताधीश बाहों में भरकर एक दूसरे से मिले और जनवासे में विराजे, नज़र न्यौछावर हुई ।
जब चित्तौड़ से आया मीरा के लिए पड़ला (वरी ) रनिवास पहुँचा तो सब चकित देखते से रह गये ।वस्त्रों के रंग , आभूषणों की गढ़ाई और गिनती ठीक उतनी की उतनी , वैसी की वैसी-- जैसा सबने मीरा के कक्ष में सुबह देखा था , -बस मूल्य और काम में ही दोनों में अन्तर दिखाई दे रहा था ।जब मीरा को वस्त्राभूषण धारण कराने का समय आया तो उसने कहा ," सब वैसा -का वैसा ही तो है भाभा हुकम ! जो पहने हूँ , वही रहने दीजिये न ।"
चित्तौड़ से आयी हुई पड़ले की सामग्री मीरा के दहेज में मिला दी गई ।मण्डप में अपने और भोजराज के बीच मीरा ने ठाकुर जी को ओढ़नी से निकाल विराजमान कर लिया ।ठौर कम पड़ी तो भोजराज थोड़ा परे सरक गये ।भाँवर के समय बायें हाथ से गिरधरलाल को साथ ही मीरा ने पकड़े रखा ।
स्त्रियाँ अपनी ही धुन में गीत गाती ,आनन्द मनाते हुये बारम्बार जोड़ी की सराहना करने लगी -" जैसी सुशील , सुन्दर अपनी बेटी है , वैसा ही बल , बुद्धि और रूप- गुण की सीमा बींद है ।"
दूसरी ने कहा ," ऐसा जमाई मिलना सौभाग्य की बात है ।बड़े घर का बेटा होते हुये भी शील और सन्तोष तो देखो ।"
हीरे- मोतियों से जड़ा मौर, जरी का केसरिया साफा, बड़े -बड़े माणिक से मण्डित मोतियों के कुण्डल , बायीं ओर लटकती स्वर्णिम झालर की लड़ी और अजंनयुक्त विशाल नेत्र ।जब वे किसी कारण से तनिक सिर को इधरउधर घुमाते याँ बात करते तो सहस्त्रों दीपों के प्रकाश में उनके अलंकार अपना वैभव प्रकाश करने लगते ।
चित्तौड़ से आई प्रौढ़ दासियाँ वर वधू पर राई नौन उतारते हुये अपने राजकुवंर के गुणों का बखान करने लगी - " बल, बुद्धि तो इनका आभूषण ही है ।पर जब न्याय के आसन पर बैठते है तो बड़े बड़े लोग आश्चर्य चकित रह जाते है .....और जब........ ।"
भोजराज ने बाँया हाथ उठा करके पीछे खड़ी जीजी को बोलने से रोक दिया ।
विवाह सम्पन्न हुआ तो सबको प्रणाम के पश्चात दोनों को एक कक्ष में पधराया गया ।द्वार के पास निश्चिंत मन से खड़ी मीरा को देखकर भोजराज धीमे पदों से उनके सम्मुख आ खड़े हुये --" मुझे अपना वचन याद है ।आप चिन्ता न करें ।जगत और जीवन में मुझे सदा आप अपनी ढाल पायेंगी ।"
क्रमशः ............
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[11:18pm, 05/07/2015] Rakesh Bhatt Pryag Fb: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (35)
क्रमशः से आगे...........
भोजराज ने गम्भीर मीठे स्वर में मीरा से कहा ," आप चिन्ता न करें ।जगत और जीवन में मुझे आप सदा अपनी ढाल पायेंगी ।" थोड़ा हँसकर वे पुनः बोले ," यह मुँह दिखाई का नेग , इसे कहाँ रखूँ ? " उन्होंने खीसे में से हार निकालकर हाथ में लेते हुये कहा ।
मीरा ने हाथ से झरोखे की ओर संकेत किया ।और सोचने लगी " एकलिंग (भगवान शिव जो चित्तौड़गढ़ में इष्टदेव है । )के सेवक पर अविश्वास का कोई कारण तो नहीं दिखाई देता पर मेरे रक्षक कहीं चले तो नहीं गये है ।" मीरा ने आँचल के नीचे से गोपाल को निकालकर उसी झरोखे में विराजमान कर दिया ।
" हुकम हो तो चाकर भी इनकी चरण वन्दना कर ले ! " भोजराज ने कहा ।
मीरा ने मुस्कुरा कर स्वीकृति में माथा हिलाया ।
" एकलिंग नाथ ने बड़ी कृपा की ।चित्तौड़ के महल भी आपकी चरणरज से पवित्र होंगे ।शैव ( शिव भक्त ) सिसौदिया भी वैष्णवों के संग से पवित्रता का पाठ सीखेंगे ।" उन्होंने वह हार गिरधर गोपाल को धारण करा दिया ।" आपने मुझे सेवा का अवसर प्रदान किया प्रभु ! मैं कृतार्थ हुआ ।इस अग्नि परीक्षा में साथ देना , मेरे वचन और अपने धन की रक्षा करना मेरे स्वामी ! " फिर मीरा की ओर मुस्कुराते हुये बोले ," यह घूँघट ?"
मीरा ने मुस्कुरा कर घूँघट उठा दिया ।वह अतुल रूपराशि देखकर भोजराज चकित रह गये , पर उन्होंने पलकें झुका ली ।
प्रातः कुंवर कलेवा पर पधारे तो स्त्रियों ने हँसी मज़ाक में प्रश्नों की बौछार कर दी ।भोजराज ने धैर्य से सब प्रश्नों का उत्तर दिया ।
रत्नसिंह (भोजराज के छोटे भाई ) ने भोजराज और मीरा के बीच गिरधर को बैठा देखा तो धीरे से पूछा ," यह क्या टोटका है ?"
" टोटका नहीं , यह तुम्हारी भाभीसा के भगवान है ।" भोजराज ने हँस कर कहा ।
" भगवान तो मन्दिर में रहते है ।यहाँ क्यों ?"
" बींद (दूल्हा ) है तो बींदनी के पास ही तो बैठेंगे न! भोजराज मुस्कुराये ।
रत्नसिंह हँस पड़े ," पर भाई बींद आप है कि ये ?"
" बींद तो यही है ।मैं तो टोटका हूँ ।धीरेधीरे तुम समझ जाओगे ।"भोजराज ने धैर्य से कहा ।
"क्यों भाभीसा ! दादोसा क्या फरमा रहे है ?" रत्नसिंह ने मीरा से पूछा तो उसने स्वीकृति में सिर हिला दिया ।
विदाई का दिन भी आ गया ।माँ ,काकी ने नारी धर्म की शिक्षा दी ।
पिता बेटी के गले लग रो पड़े ।वीरमदेव जी मीरा के सिर पर हाथ रख बोले ," तुम स्वयं समझदार हो, पितृ और पति दोनों कुलों का सम्मान बढ़े, बेटा वैसा व्यवहार करना ।"
फिर भोजराज की तरफ़ हाथ जोड़ वीरमदेव जी बोले ," हमारी बेटी में कोई अवगुण नहीं है , पर भक्ति के आवेश में इसे कुछ नहीं सूझता ।इसकी भलाई बुराई , इसकी लाज आपकी लाज है ।आप सब संभाल लीजिएगा ।"
भोजराज ने उन्हें आँखों से ही आश्वासन दिया ।
उसी समय रोती हुई माँ मीरा के पास आई और बोली ," बेटी तेरे दाता हुकम ( वीरमदेव जी )ने दहेज में कोई कसर नहीं रखी पर लाडो , कुछ और चाहिए तो बोल ......"
मीरा ने कहा............
दै री अब म्हाँको गिरधरलाल ।
प्यारे चरण की आन करति हाँ और न दे मणि लाल ॥
नातो सगो परिवारो सारो म्हाँने लागे काल।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर छवि लखि भई निहाल ॥
क्रमशः .............
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[11:18pm, 05/07/2015] Rakesh Bhatt Pryag Fb: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (36)
क्रमशः से आगे ............
माँ ने मीरा से जब पूछा कि बेटी मायके से कुछ और चाहिए तो बता -- तो मीरा ने कहा," बस माँ मेरे ठाकुर जी दे दो-मुझे और किसी भी वस्तु की इच्छा नहीं है ।"
" ठाकुर जी को भले ही ले जा बेटा , पर उनके पीछे पगली होकर अपना कर्तव्य न भूल जाना ।देख, इतने गुणवान और भद्र पति मिले है ।सदा उनकी आज्ञा में रहकर ससुराल में सबकी सेवा करना " माँ ने कहा ।
बहनों ने मिल कर मीरा को पालकी में बिठाया ।मंगला ने सिंहासन सहित गिरधरलाल को उसके हाथ में दे दिया ।दहेज की बेशुमार सामग्री के साथ ठाकुर जी की भी पोशाकें और श्रंगार सब सेवा का ताम झाम भी साथ चला ।वस्त्राभूषण से लदी एक सौ एक दासियाँ साथ गई ।
बड़ी धूमधाम से बारात चित्तौड़ पहुँची । राजपथ की शोभा देखते ही बनती थी ।वाद्यों की मंगल ध्वनि में मीरा ने महल में प्रवेश किया ।सब रीति रिवाज़ सुन्दर ढंग से सहर्ष सम्पन्न हुये ।
देर सन्धया गये मीरा को उसके महल में पहुँचाया गया । मिथुला ,चम्पा की सहायता से उसने
गिरधरलाल को एक कक्ष में पधराया ।भोग ,आरती करके शयन से पूर्व वह ठाकुर के लिए गाने लगी..........
होता जाजो राज म्हाँरे महलाँ,होता जाजो राज।
मैं औगुणी मेरा साहिब सौ गुणा,संत सँवारे काज।
मीरा के प्रभु मन्दिर पधारो,करके केसरिया साज।
मीरा के मधुर कण्ठ की मिठास सम्पूर्ण कक्ष में घुल गई ।भोजराज ने शयन कक्ष में साफा उतारकर रखा ही था कि मधुर रागिनी ने कानों को स्पर्श किया ।वे अभिमन्त्रित नाग से उस ओर चल दिये ।वहाँ पहुँचकर उनकी आँखें मीरा के मुख-कंज की भ्रमर हो अटकी ।भजन पूरा हुआ तो उन्हें चेत आया ।प्रभु को दूर से प्रणाम कर वह लौट आये ।
अगले दिन मीरा की मुँह दिखाई और कई रस्में हुईं ।पर मीरा सुबह से ही अपने ठाकुर जी की रागसेवा में लग जाती ।अवश्य ही अब इसमें भोजराज की परिचर्या एवं समय पर सासुओं की चरण -वन्दना भी समाहित हो गई ।नई दुल्हन के गाने की चर्चा महलों से निकल कर महाराणा के पास पहुँची ।
उनकी छोटी सास कर्मावती ने महाराणा से कहा," यों तो बीणनी से गाने को कहे तो कहती है मुझे नहीं आता और उस पीतल की मूर्ति के समक्ष बाबाओं की तरह गाती है ।"
" महाराणा ने कहा ," वह हमें नहीं तीनों लोकों के स्वामी को रिझाने के लिए नाचती - गाती है ।मैंने सुना है कि जब वह गाती है, तब आँखों से सहज ही आँसू बहने लगते है ।जी चाहता है , ऐसी प्रेममूर्ति के दर्शन मैं भी कर पाता ।"
" हम बहुत भाग्यशाली है जो हमें ऐसी बहू प्राप्त हुईं ।पर अगर ऐसी भक्ति ही करनी थी तो फिर विवाह क्यों किया ? बहू भक्ति करेगी तो महाराज कुमार का क्या ?
" युवराज चाहें तो एक क्या दस विवाह कर सकते है ।उन्हें क्या पत्नियों की कमी है ? पर इस सुख में क्या धरा है ? यदि कुमार में थोड़ी सी भी बुद्धि होगी तो वह बीनणी से शिक्षा ले अपना जीवन सुधार लेंगे ।"
क्रमशः .................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[11:18pm, 05/07/2015] Rakesh Bhatt Pryag Fb: ॥ जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (37)
क्रमशः से आगे............
मीरा को चित्तौड़ में आये कुछ मास बीत गये ।गिरधर की रागसेवा नियमित चल रही है ।मीरा अपने कक्ष में बैठे गिरधरलाल की पोशाक पर मोती टाँक रही थी ।कुछ ही दूरी पर मसनद के सहारे भोजराज बैठे थे ।
"सुना है आपने योग की शिक्षा ली है ।ज्ञान और भक्ति दोनों ही आपके लिए सहज है ।यदि थोड़ी -बहुत शिक्षा सेवक भी प्राप्त हो तो यह जीवन सफल हो जाये ।"
भोजराज ने मीरा से कहा ।
ऐसा सुनकर मुस्कुरा कर भोजराज की तरफ देखती हुई मीरा बोली ," यह क्या फरमाते है आप ? चाकर तो मैं हूँ । प्रभु ने कृपा की कि आप मिले ।कोई दूसरा होता तो अब तक मीरा की चिता की राख भी नहीं रहती ।चाकर आप और मैं , दोनों ही गिरधरलाल के है ।"
" भक्ति और योग में से कौन श्रेष्ठ है ?"भोजराज ने पूछा ।
" देखिये, दोनों ही अध्यात्म के स्वतन्त्र मार्ग है ।पर मुझे योग में ध्यान लगा कर परमानन्द प्राप्त करने से अधिक रूचिकर अपने प्राण-सखा की सेवा लगी ।"
" तो क्या भक्ति में ,सेवा में योग से अधिक आनन्द है?"
" यह तो अपनी रूचि की बात है ,अन्यथा सभी भक्त ही होते संसार में ।योगी ढूँढे भी न मिलते कहीं ।"
" मुझे एक बात अर्ज करनी थी आपसे " मीरा ने कहा ।
" एक क्यों , दस कहिये । भोजराज बोले ।
" आप जगत-व्यवहार और वंश चलाने के लिए दूसरा विवाह कर लीजिए ।"
" बात तो सच है आपकी ,किन्तु सभी लोग सब काम नहीं कर सकते ।उस दिन श्याम कुन्ज में ही मेरी इच्छा आपके चरणों की चेरी बन गई थी ।आप छोड़िए इन बातों में क्या रखा है ? यदि इनमें थोड़ा भी दम होता तो ............ " बात अधूरी छोड़ कर वे मीरा की ओर देख मुस्कुराये - " रूप और यौवन का यह कल्पवृक्ष चित्तौड़ के राजकुवंर को छोड़कर इस मूर्ति पर न्यौछावर नहीं होता और भोज शक्ति और इच्छा का दमन कर इन चरणों का चाकर बनने में अपना गौरव नहीं मानता ।जाने दीजिये - आप तो मेरे कल्याण का सोचिए ।लोग कहते है - ईश्वर निर्गुण निराकार है ।इन स्थूल आँखों से नहीं देखा जा सकता ,मात्र अनुभव किया जा सकता है ।सच क्या है , समझ नहीं पाया ।"
"वह निर्गुण निराकार भी है और सगुण साकार भी ।" मीरा ने गम्भीर स्वर में कहा-" निर्गुण रूप में वह आकाश , प्रकाश की भांति है -जो चेतन रूप से सृष्टि में व्याप्त है ।वह सदा एकरस है ।उसे अनुभव तो कर सकते है , पर देख नहीं सकते ।और ईश्वर सगुण साकार भी है ।यह मात्र प्रेम से बस में होता है, रूष्ट और तुष्ट भी होता है ।ह्रदय की पुकार भी सुनता है और दर्शन भी देता है ।" मीरा को एकाएक कहते कहते रोमांच हुआ ।
यह देख भोजराज थोड़े चकित हुए ।उन्होने कहा ," भगवान के बहुत नाम -रूप सुने जाते है ।नाम -रूपों के इस विवरण में मनुष्य भटक नहीं जाता ?"
" भटकने वालों को बहानों की कमी नहीं रहती ।भटकाव से बचना हो तो सीधा उपाय है कि जो नाम - रूप स्वयं को अच्छा लगे , उसे पकड़ ले और छोड़े नहीं ।दूसरे नाम-रूप को भी सम्मान दें ।क्योंकि सभी ग्रंथ , सभी साम्प्रदाय उस एक ईश्वर तक ही पहुँचने का पथ सुझाते है ।मन में अगर दृढ़ विश्वास हो तो उपासना फल देती है ।"
क्रमशः .................
॥ श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[11:18pm, 05/07/2015] Rakesh Bhatt Pryag Fb: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (38)
क्रमशः से आगे ............
अत्यन्त विनम्रता से भोजराज मीरा से भगवान के सगुण साकार स्वरूप की प्राप्ति के लिए जिज्ञासा कर रहे है । वह बोले ," तो आप कह रही है कि भगवान उपासना से प्राप्त होते है ।वह कैसे ?मैं समझा नहीं ?"
"उपासना मन की शुद्धि का साधन है ।संसार में जितने भी नियम है ; संयम , धर्म , व्रत , दान -सब के सब जन्म जन्मान्तरों से मन पर जमें हुये मैले संस्कारों को धोने के उपाय मात्र है ।एकबार वे धुल जायें तो फिर भगवान तो सामने वैसे ही है जैसे दर्पण के स्वच्छ होते ही अपना मुख उसमें दिखने लगता है ।" मीरा ने स्नेह से कहा," देखिए , भगवान को कहीं से आना थोड़े ही है जो उन्हें विलम्ब हो । भगवान न उपासना के वश में हो और न दान धर्म के ।वे तो कृपा -साध्य है, प्रेम -साध्य है ।बस उन्हें अपना समझ कर उनके सम्मुख ह्रदय खोल दें ।अगर हम उनसे कोई लुकाव-छिपाव न करें तो भगवान से अधिक निकट कोई भी हमारे पास नहीं -और यदि यह नहीं है तो उनकी दूरी की कोई सीमा भी नहीं ।"
" पर मनुष्य के पास अपनी इन्द्रियों को छोड़ अनुभव का कोई अन्य उपाय तो है नहीं ,फिर जिसे देखा नहीं , जाना नहीं ,व्यवहार में बरता नहीं , उससे प्रेम कैसे सम्भव है ?"
" हमारे पास एक इन्द्रिय ऐसी है , जिसके द्वारा भगवान ह्रदय में साकार होते है ।और वह इन्द्रिय है कान ।बारम्बार उनके रू�प-गुणों का वर्णन श्रवण करने से विश्वास होता है और वे हिय में प्रकाशित हो उठते है ।विग्रह की पूजा -भोग-राग करके हम अपनी साधना में उत्साह बढ़ा सकते है ।"
" पर बिना देखे प्रतीक (विग्रह) कैसे बनेगा ? क्या आपने कभी साक्षात दर्शन किए ?"
प्रश्न सुनकर मीरा की आँखें भर आई और गला रूँध गया ।घड़ी भर में अपने को संभाल कर बोली -" अब आपसे क्या छिपाऊँ ?यद्यपि यह बातें कहने -सुनने की नहीं होती ।मन से तो वह रूप पलक झपकने जितने समय भी ओझल नहीं होता , किन्तु अक्षय तृतीया के प्रभात से पूर्व मुझे स्वप्न आया कि प्रभु मेरे बींद( दूल्हा ) बनकर पधारे है, और देवता , द्वारिका वासी बारात में आये ।दोनों ओर चंवर डुलाये जा रहे थे ।वे सुसज्जित श्वेत अश्व पर जिसके केवल कान काले थे, पर विराजमान थे ।यद्यपि मैंने आपके राजकरण अश्व के समान शुभलक्षण और सुन्दर अश्व नहीं देखा तथा आपके समान कोई सुन्दर नर नहीं दिखाई दिया पर.......पर....... उस रूप के सम्मुख ......कुछ भी नहीं ।"
मीरा बोलते बोलते रूक गई ।उनकी आँखें कृष्ण रूप माधुरी के स्मरण में स्थिर हो गई और देह जैसे कँपकँपा उठी ।
भोजराज मीरा का ऐसा प्रेम भाव देख स्तब्ध रह गये ।उन्होंने स्वयं का भाव समेट कर शीघ्रता से मिथुला को मीरा को संभालने के लिए पुकारा ।
क्रमशः .................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[11:18pm, 05/07/2015] Rakesh Bhatt Pryag Fb: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (40)
क्रमशः से आगे.................
भोजराज सजल नेत्रों से अतिश�य भावुक एवं विनम्र हो मीरा के चरणों में ही बैठे उनसे मार्ग दर्शन की प्रार्थना करने लगे ।
मीरा का हाथ सहज ही भोजराज के माथे पर चला गया -" आप उठकर विराजिये ।प्रभु की अपार सामर्थ्य है ।शरणागत की लाज उन्हें ही है ।कातरता भला आपको शोभा देती है ? कृपा करके उठिये ।"
भोजराज ने अपने को सँभाला ।वे वापिस गद्दी पर जा विराजे और साफे से अपने आँसू पौंछने लगे ।मीरा ने उठकर उन्हें जल पिलाया ।
" आप मुझे कोई सरल उपाय बतायें ।पूजा -पाठ , नाचना-गाना ,मँजीरे याँ तानपुरा बजाना मेरे बस का नहीं है ।" भोजराज ने कहा ।
" यह सब आपके लिए आवश्यक भी नहीं है ।" मीरा हँस पड़ी ।" बस आप जो भी करें , प्रभु के लिए करें और उनके हुकम से करें, जैसे सेवक स्वामी की आज्ञा से अथवा उनका रूख देखकर कार्य करता है ।जो भी देखें , उसमें प्रभु के हाथ की कारीगरी देखें ।कुछ समय के अभ्यास से सारा ही कार्य उनकी पूजा हो जायेगी ।"
" युद्ध भूमि में शत्रु संहार , न्यायासन पर बैठकर अपराधियों को दण्ड देना भी क्या उन्हीं के लिए है ?"
" हाँ हुकम ! मीरा ने गम्भीरता से कहा-" नाटक के पात्र मरने और मारने का अभिनय नहीं करते क्या ? उन्हीं पात्रों की भातिं आप भी समझ लीजिए कि न मैं मारता हूँ न वे मरते है , केवल मैं प्रभु की आज्ञा से उन्हें मुक्ति दिला रहा हूँ ।यह जगत तो प्रभु का रंगमंच है ।दृश्य भी वही है और द्रष्टा भी वही है ।अपने को कर्ता मानकर व्यर्थ बोझ नहीं उठायें ।कर्त्ता बनने पर तो कर्मफल भी भुगतना पड़ता है, तब क्यों न सेवक की तरह जो स्वामी चाहे वही किया जाये ।मजदूरी तो कर्ता बनने पर भी उतनी ही मिलती है , जितनी मजदूर बनने पर , पर ऐसे में स्वामी की प्रसन्नता भी प्राप्त होती है ।हाँ -एक बाद अवश्य ध्यान रखने की है कि जो पात्रता आपको प्रदान की गयी है , उसके अनुसार आपके अभिनय में कमी न आने पाये ।"
मीरा ने थोड़ा रूककर फिर कहा ," क्या उचित है और क्या अनुचित ,यह बात किसी और से सुनने की आवश्यकता नहीं होती ।भीतर बैठा अन्तर्यामी ही हमें उचित अनुचित का बोध करा देता है ।उसकी बात अनसुनी करने से धीरेधीरे वह भीतर की ध्वनि धीमी पड़ती जाती है, और नित्य सुनने से और उसपर ध्यान देकर उसके अनुसार चलने पर अन्त:करण की बात स्पष्ट होती जाती है ।फिर तो कोई अड़चन नहीं रहती ।कर्तव्य -पालन ही राजा के लिए सबसे बड़ी पूजा और तपस्या है ।"
क्रमशः ...........
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[11:20pm, 05/07/2015] Rakesh Bhatt Pryag Fb: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (39)
क्रमशः से आगे..........
मीरा प्रभु का बींद स्वरूप स्मरण करते करते भाव में निमग्न हो गई ।मिथुला ने जल पात्र मुख से लगाया तो वह सचेत हुईं ।
" फिर ?आप बता रही थी कि प्रभु अक्षय तृतीया को बींद बनकर पधारे थे..........।"भोजराज ने पूछा ।
मीरा ने किचिंत लजाते हुये कहा ," जी हुकम ! मेरा और प्रभु का हस्त -मिलाप हुआ ।उनके पीताम्बर से मेरी साड़ी की गाँठ बाँधी गयी । भाँवरो में , मैं उनके अरूण मृदुल चारू चरणों पर दृष्टि लगाये उनका अनुसरण कर रही थी ।हमें महलों में पहुँचाया गया ।यह....... यह हीरकहार ... ।" उसने एक हाथ से अपने गले में पड़े हीरे के हार को दिखाया - " यह प्रभु ने मुझे पहनाया और मेरा घूँघट ऊपर उठा दिया ।"
" यह....... यह वह नहीं है , जो मैंने नज़र किया था ?" भोजराज ने सावधान होकर पुछा ।
" वह तो गिरधर गोपाल के गले में है ।" मीरा ने कहा और हार में लटकता चित्र दिखाया -"यह , इसमें प्रभु का चित्र है ।"
" मैं देख सकता हूँ इसे ?" भोजराज चकित हो उठे ।
" अवश्य ।" मीरा ने हार खोल कर भोजराज की हथेली पर रख दिया ।भोजराज ने श्रद्धा से देखा ,सिर से लगाया और वापिस लौटा दिया ।" आगे क्या हुआ ?" उन्होंने जिज्ञासा की ।
" मैं प्रभु के चरण स्पर्श को जैसे ही झुकी- उन्होंने मुझे बाँहों में भर उठा लिया ।" मीरा की आँखें आनन्द से मुंद गई ।वाणी अवरूद्ध होने लगी ।......"हा म्हाँरा सर..... सर्वस्व .....म्हूँ......थारी चेरी (दासी) ।"
मीरा की अपार्थिव दृष्टि से आनन्द अश्रु बन ढलकने लगा ।ऐसा लगा जैसे आँसू -मोती की लड़िया बनकर टूट कर झड़ रहे हो ।उसे स्वयं की सुध न रही । भोजराज को मन हुआ उठकर जल पिला दें पर अपनी विवशता स्मरण कर बैठे रहे ।
कुछ क्षणों के पश्चात जब मीरा ने निमीलित दृष्टि खोली तो किंचित संकुचित होते हुए बोली ,"मैं तो बाँवरी हूँ - कोई अशोभनीय बात तो नहीं कह दी ।"
" नहीं नहीं ! आप ठाकुर जी से विवाह की बात बता रही थी कि कक्ष में पधारने पर आपने प्रणाम किया और....... ।"
" जी ।" मीरा जैसे खोये से स्वर में बोली -" वह मेरे समीप थे, वह सुगन्धित श्वास , वह देह गन्ध , इतना आनन्द मैं कैसे संभाल पाती ! प्रातःकाल सबने देखा -वह गँठजोड़ा , हथलेवे का चिन्ह , गहने , वस्त्र , चूड़ा ।चित्तौड़ से आया चूड़ा तो मैंने पहना ही नहीं - गहने , वस्त्र सब ज्यों के त्यों रखे है ।"
"क्या मैं वहाँ से आया पड़ला देख सकता हूँ ?"भोजराज बोले ।"
" अभी मंगवाती हूँ ।" मीरा ने मंगला और मिथुला को पुकारा ।" मिथुला ,थूँ जो द्वारिका शूँ आयो पड़ला कणी पेटी में है ?और चित्तौड़ शूँ पड़ला -वा ऊँचा ला दोनों तो मंगला ।"
दोंनों पेटियाँ आयी तो दासियों ने दोनों की सामग्री खोलकर अलगअलग रख दी ।
आश्चर्य से भोजराज ने देखा ।सब कुछ एक सा था - गिनती , रंग पर फिर भी चित्तौड़ के महाराणा का सारा वैभव द्वारिका से आये पड़ले के समक्ष तुच्छ था ।श्रद्धा पूर्वक भोजराज ने सबको छुआ, प्रणाम किया ।सब यथा स्थान पर रख दासियाँ चली गई तो भोजराज ने उठकर मीरा के चरणों में माथा धर दिया ।
" अरे यह , यह क्या कर रहे है आप ?" मीरा ने चौंककर कहा और पाँव पीछे हटा लिए ।
" अब आप ही मेरी गुरु है ,मुझ मतिहीन को पथ सुझाकर ठौर- ठिकाने पहुँचा देने की कृपा करें ।" गदगद कण्ठ से वह ठीक से बोल नहीं पा रहे थे , उनके नेत्रों से अश्रुओं की बूँदे मीरा के अमल धवल चरणों का अभिषेक कर रहे थे ।
क्रमशः .............
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[12:05pm, 06/07/2015] Sanju Varma Fb: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (41)
क्रमशः से आगे ...................
मीरा ससुराल में समय समय पर बीच में सबके चरण स्पर्श कर आती, पर कहीं अधिक देर तक न ठहर पाती ।क्योंकि इधर ठाकुर जी के भोग का समय हो जाता ।फिर सन्धया में वह जोशी जी से शास्त्र -पुराण सुनती ।
महलों में मीरा के सबसे अलग थलग रहने पर आलोचना होती , पर अगर कोई मीरा को स्वयं मिलने पधारता ,तो वह अतिशय स्नेह और अपनत्व से उनकी आवभगत करती ।
श्रावण आया ।तीज का त्योहार ।चित्तौड़गढ़ के महलों में शाम होते ही त्यौहार की हलचल आरम्भ हो गई ।सुन्दर झूला डाला गया ।पूरा परिवार एक ही स्थान पर एकत्रित हुआ ।बारी बारी से सब जोड़े से झूले पर बैठते , और सकुचाते ,लजाते एक दूसरे का नाम लेते ।
भोजराज और मीरा की भी क्रम से बारी आई ।महाराणा और बड़े लोग भोजराज का संकोच देख थोड़ा पीछे हट गये ।भाई रत्नसिंह ने आग्रह किया ," यदि आपने विलम्ब किया तो मैं उतरने नहीं दूँगा ।शीघ्र बता दीजिए भाभीसा का नाम !"
" मेड़तिया घर री थाती मीराँ आभ रो फूल ( आकाश का फूल अर्थात ऐसा पुष्प जो स्वयं में दिव्य और सुन्दर तो हो पर अप्राप्य हो ।)बस अब तो ?"
रत्नसिंह भाई के शब्दों पर विचार ही करते रह गये ।मीरा को स्त्रियों ने घेरकर पति का नाम पूछा तो उसने मुस्कुराते ,लजाते हुए बताया -
" राजा है नंदरायजी जाँको गोकुल गाँम ।
जमना तट रो बास है गिरधर प्यारो नाम ॥"
" यह क्या कहा आपने ? हम तो कुँवरसा का नाम पूछ रही है ।"
" इनका नाम तो भोजराज है ।बस, अब मैं जाऊँ ? मीरा अपने महल की तरफ चल पड़ी । उसके मन में अलग सी तरंग उठ रही थी । नन्हीं नन्हीं बूँदे पड़ने लगी ।वह गुनगुनाने लगी...........
हिडोंरो पड़यो कदम की डाल,
म्हाँने झोटा दे नंदलाल ॥
भक्तों के श्रावण का भावरस व्यवहारिक जगत से कितना अलग होता है ।उन्हें प्रकृति की प्रत्येक क्रिया में ठाकुर का ही कोई संकेत दिखाई देता है ।दूर कहीं पपीहा बोला तो मीरा को लगा मानो वह " पिया पिया" बोल वह उसको चिढ़ा रहा हो ।"पिया" शब्द सुनते ही जैसे आकाश में ही नहीं उसके ह्रदय में भी दामिनी लहरा गई --
पपीहरा काहे मचावत शोर ।
पिया पिया बोले जिया जरावत मोर॥
अंबवा की डार कोयलिया बोले रहि रहि बोले मोर।
नदी किनारे सारस बोल्यो मैं जाणी पिया मोर॥
मेहा बरसे बिजली चमके बादल की घनघोर ।
मीरा के प्रभु वेेग दरसदो मोहन चित्त के चोर ॥
वर्षा की फुहार में दासियों के संग मीरा भीगती महल पहुँची ।उसके ह्रदय में आज गिरधर के आने की आस सी जग रही है ।वे कक्ष में आकर अपने प्राणाराध्य के सम्मुख बैठ गाने लगी ...................
बरसे बूँदिया सावन की ,
सावन की मनभावन की ।
सावन में उमग्यो मेरो मनवा,
भनक सुनी हरि आवन की ।
उमड़ घुमड़ चहुँ दिसि से आयो,
दामण दमके झर लावन की॥
नान्हीं नान्हीं बूँदन मेहा बरसै,
सीतल पवन सोहावन की ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर ,
आनँद मंगल गावन की ॥
क्रमशः ...................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[12:06pm, 06/07/2015] Sanju Varma Fb: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (42)
क्रमशः से आगे ............
श्रावण की मंगल फुहार ने प्रियतम के आगमन की सुगन्ध चारों दिशाओं में व्यापक कर दी ।मीरा को क्षण क्षण प्राणनाथ के आने का आभास होता -वह प्रत्येक आहट पर चौंक उठती ।वह गिरधर के समक्ष बैठे फिर गाने लगी .......
सुनो हो मैं हरि आवन की अवाज।
महल चढ़ चढ़ जोऊँ मेरी सजनी,
कब आवै महाराज ।
सुनो हो मैं हरि आवन की अवाज॥
दादर मोर पपइया बोलै ,
कोयल मधुरे साज ।
उमँग्यो इंद्र चहूँ दिसि बरसै,
दामणि छोड़ी लाज ॥
धरती रूप नवा-नवा धरिया,
इंद्र मिलण के काज ।
मीरा के प्रभु हरि अबिनासी,
बेग मिलो सिरताज॥
भजन पूरा करके मीरा ने जैसे ही आँखें उघाड़ी , वह हर्ष से बावली हो उठी ।सम्मुख चौकी पर श्यामसुन्दर बैठे उसकी ओर देखते हुये मंद मंद मुस्कुरा रहे थे ।मीरा की पलकें जैसे झपकना भूल गई ।कुछ क्षण के लिए देह भी जड़ हो गई ।फिर हाथ बढ़ा कर चरण पर रखा यह जानने के लिए कि कहीं यह स्वप्न तो नहीं ? उसके हाथ पर एक अरूण करतल आ गया । उस स्पर्श ....... में मीरा जगत को ही भूल गई ।
" बाईसा हुकम !"मंगला ने एकदम प्रवेश किया तो स्वामिनी को यूँ किसी से बात करते ठिठक गई ।
मीरा ने पलकें उठाकर उसकी ओर देखा ।" मंगला ! आज प्रभु पधारे है ।जीमण (भोजन ) की तैयारी कर ।चौसर भी यही ले आ ।तू महाराज कुमार को भी निवेदन कर आ ।"
मीरा की हर्ष-विह्वल दशा देखकर मंगला प्रसन्न भी हुई और चकित भी ।उसने शीघ्रता से दासियों में संदेश प्रसारित कर दिया ।घड़ी भर में तो मीरा के महल में गाने -बजाने की धूम मच गई ।चौक में दासियों को नाचते देख भोजराज को आश्चर्य हुआ ।मंगला से पूछने पर वह बोली ," कुंवरसा ! आज प्रभु पधारे है ।"
भोजराज चकित से गिरधर गोपाल के कक्ष की ओर मुड़ गये ।वहां द्वार से ही मीरा की प्रेम-हर्ष-विह्वल दशा दर्शन कर वह स्तम्भित से हो गये ।मीरा किसी से हँसते हुये बात कर रही थी- " बड़ी कृपा ........की प्रभु .....आप पधारे .....मेरी तो आँखें ......पथरा गई थी...... प्रतीक्षा में ।"
भोजराज सोच रहे थे ," प्रभु आये है, अहोभाग्य ! पर हाय! मुझे क्यों नहीं दर्शन नहीं हो रहे ?"
मीरा की दृष्टि उनपर पड़ी ।" पधारिये महाराजकुमार ! देखिए , मेरे स्वामी आये है ।ये है द्वारिकाधीश , मेरे पति ।और स्वामी , यह है चित्तौड़गढ़ के महाराजकुमार ,भोजराज , मेरे सखा ।"
" मुझे तो यहाँ कोई दिखाई नहीं दे रहा ।" भोजराज ने सकुचाते हुए कहा ।
मीरा फिर हँसते हुये बोली "आप पधारे ! ये फरमा रहे है कि आपको अभी दर्शन होने में समय है ।"
भोजराज असमंजस में कुछ क्षण खड़े रहे फिर अपने शयनकक्ष में चले गये ।मीरा गाने लगी--
आज तो राठौड़ीजी महलाँ रंग छायो।
आज तो मेड़तणीजी के महलाँ रंग छायो।
कोटिक भानु हुवौ प्रकाश जाणे के गिरधर आया॥
सुर नर मुनिजन ध्यान धरत हैं वेद पुराणन गाया
मीरा के प्रभु गिरधर नागर घर बैठयौं पिय पाया॥
क्रमशः ..................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[1:51pm, 06/07/2015] Sanju Varma Fb: Short Lecture by Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj
Bhakti aur gyaan part 1
अरे उन्होंने तो लिखा हैश्लोक....और अपने लिये उन्होंने कहा हैश्लोक.... अपवर्ग भी मुझे नहीं चाहिये, हम तो नंदनंदन के पादारविन्द के मकरंद के भ्रमर बनेंगे | तो भगवान श्री कृष्ण सगुण रूप है,उन्हीं की लाईट का नाम है ब्रह्म |उनकी किरण को निर्गुण निराकार निर्विशेष ब्रह्म कहते हैं| वो निराकार ब्रह्म के विषय में शंकराचार्य ने कहा -श्लोक....अरे मनुष्यों ये बड़ा कठिन मार्ग है | हाँ पहले मन पर कंट्रोल (control) करो सेंट परसेंट (cent percent) फिर ए, बी, सी, डी (A B C D) शुरू होगा ज्ञान का | मन पर कंट्रोल ? विश्वामित्र, बड़े बड़े योगीन्द्र मुनीन्द्र तो कर नहीं सके, मन पर कंट्रोल!ऋषभ, भगवान के अवतार, उनके सामने सिद्धियाँ आयीं तो उन्होंने कहा तुम लोग कैसे आयीं यहाँ? मैं आपकी सेवा करने | भाग यहाँ से सेवा करने आई है चुड़ैल!श्लोक....तुम लोगों की ओर मन चला गया तो पतन हो गया उसका | चमत्कार दिखाता फिरता रहेगा और भगवान् से दूर हो जाएगा | रिद्धि-सिद्धि होती हैं न अणिमा, लघिमा, गरिमा | 23 सिद्धियाँ होती हैं - पांच सिद्धियाँ निर्गुण होती हैं, दस सात्विक होती हैं और पांच योगियों की होती हैं | इनसे संत लोग दूर रहते हैं | चमत्कार से दूर |इतना मारा हरिदास को गुंडों ने उन्होंने भगवान से कहा "ऐ! चक्र लेके कहाँ जा रहे हो" | गौरांग महाप्रभु से कहा क्षमा कर दो | दंड महापुरुषों के यहाँ नहीं हैं | तो निराकार ब्रह्म की उपासना तो कलयुग में सर्वथा असंभव |श्लोक.... योग, यज्ञ, ज्ञान ये एक भी नहीं है कलयुग में | योग में भी पहला अध्याय है |श्लोक....पांच नियम बताये गये हैं, मन को शुद्ध करो पहले | फिर आसन, फिर प्राणायाम | मन को शुद्ध करके जाएँ | वो कैसे करें | भक्ति से होगा | ये बात शंकराचार्य ने भी मान ली |श्लोक....श्री कृष्ण की भक्ति के बिना अंतःकरण शुद्ध नहीं होगा| इसलिए वेद कहता है...श्लोक....अर्थात कर्म ज्ञान योग के चक्कर में न पड़ो | कलयुग में तो क्या सतयुग में ये असंभव-सा था | अर्जुन से भगवान् ने कहा थाश्लोक....अर्जुन! इतना कठिन है, देहधारी बिना देह वाले की भक्ति करे|इसका क्या नाम है? कुछ नहीं|क्या रूप है? कुछ नहीं|नाम रूप नहीं होता उसका|अरे तो काहे का ध्यान करें फिर|बस करो|ब्रह्म है, ब्रह्म मत बोलिए! उसका नाम बोल रहे आप|उसका नाम भी नहीं है, रूप भी नहीं है, गुण भी नहीं है, लीला भी नहीं है|तो यह देह धारियों के लिए असंभव है|इसलिए वेद कहता हैश्लोक....केवल भक्ति से भगवान् मिलेंगे| अरे भई देखो, गधे की अकल से | किसी के पास बहुत बड़ी चीज़ है | आज दुनिया में ये एक चीज़ ऐसी है सबसे बड़ी है वो| क्या है ? संसारी चीज़ है कोहिनूर हीरा | इंगलैंड (England) के पास है | अब आप उस कोहिनूर हीरा को चाहते हैं | हाँ जी चाहते हैं | तो या तो आप चुरा लीजिये | ये तो असंभव है | तो फिर वहाँ कि गवर्नमेंट (Government) को परास्त करके युद्ध करके और ज़बरदस्ती ले आईये | नहीं ये भी असंभव है | तो फिर माँग लीजिये | वो नहीं देते, ये अलग बात है, लेकिन एक ही रास्ता बचा है बस मांग लो |तो भगवान् से कोई चोरी करे कि अपना आनंद दे दो, इम्पोसिबल(impossible) |भगवान् को पकड़ के, बाँध के, और रिवाल्वर(revolver)दिखावें कि आनंद दे दो ये भी असंभव है तो अब एक ही रास्ता है माँग लो|भगवान् न दें तो, नहीं, नहीं, नहीं|वो तो देनेको तैयार बैठे हैं|श्लोक....रो कर मांगो|मैं दे दूंगा ठीक ठीक माँगो|इठला के नहीं|जैसे मंदिरों में कहते हो 'त्वमेव माता च पिता त्वमेव बंधु:च सखा त्वमेव' | ऐसे नहीं चलेगा | शब्द ज्ञान में भगवान् नहीं पढ़ते संसार वाले पढ़ते हैं | मीठी मीठी बात कीया संसार में किसीसे | हम तुमसे बहुत प्यार करते हैं, तुम्हारे बिना मर जाएँगे, ज़हर खा लेंगे, खोपडा खा लेंगे | ये सब तो संसार में चल जाएगा, भगवान् के यहाँ नहीं चलेगा |
[6:32pm, 06/07/2015] Sanju Varma Fb: रंगीली राधा रसिकन प्रान ।
सरस किशोरी की सरबोरि , भोरी मृदु मुस्कान । सुबरन बरन गोर तनु बरन सुबरन, नील बरन परीधान । कनकन मुकुट लटनि की लटकनि, भृकुटिन कुटिल कमान ।
कनकन कंकन कनकन किंकिन, कनकन कुंडल कान । लखि लाजत श्रृंगार लड़लिही, कह लौ करीय बखान । होत 'कृपालु' निछावर जापर । सुन्दर श्याम सूजान ।
भावार्थ- रँगीली राधा रसिको को प्राण के समान प्रिय हे । रसमयी किशोरी जी की प्रेम रस से सरोबार भोली सी मुस्कान अत्यंत ही मधुर हे । किशोरी जी की देह का रंग स्वर्ण के समान अत्यंत सुन्दर हे । वे नीले रंग की सड़ी पहने हुए हे । स्वर्ण के मुखुट, घुंगराले बालो की लटक एवम् धनुष के समान टेड़ी भौए नितांत कमनीय हे । हाथ में स्वर्ण के कंकण, कमर में स्वर्ण की किंकिणी एवम् कानो में सुवर्ण के कुंडल मन को बरबस लुभा रही हे । कहा तक कहे किशोरी जी की श्रृंगार माधुरी को देखकर स्वयं श्रृंगार भी लज्जित हो जाता हे । 'श्री कृपालु जी' कहते हे की सबसे बड़ी बात तो यह हे की त्रिभुवन मदन मोहन भी स्वयं किशोरी जी के हाथो बिना दाम के बीके हुए हे ।
(प्रेम रस मदिरा श्री राधा -माधुरि)
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
[12:01pm, 07/07/2015] Sanju Varma Fb: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (43)
क्रमशः से आगे...................
आज मीरा की प्रसन्नता की सीमा नहीं है ।आज उसके घर भव- भव के भरतार पधारे है उसकी साधना -उसका जीवन सफल करने ।
श्यामसुन्दर का हाथ पकड़ कर वह उठ खड़ी हुई -"झूले पर पधारेगें आप ? आज तीज है ।"
दोनों ने हिंडोला झूला और फिर महल में लौट कर भोजन लिया ।
मीरा बार बार श्यामसुन्दर की छवि निहार बलिहारी हो जाती ।आज रँगीले राजपूत के वेश मे हैं प्रभु, केसरिया साफा , केसरिया अंगरखा, लाल किनारी की केसरिया धोती और वैसा ही दुपट्टा ।शिरोभूषण में लगा मोरपंख , कानों में हीरे के कुण्डल ,गले के कंठे में जड़ा पदमराग कौस्तुभ, मुक्ता और वैजयन्ती माल, रत्न जटित कमरबन्द , हाथों में गजमुख कंगन और सुन्दर भुजबन्द, चरणों में लंगर और हाथों में हीरे - पन्ने की अँगूठियाँ ।
और इन सबसे ऊपर वह रूप , कैसे उसका कोई वर्णन करें ! असीम को अक्षरों में कैसे बाँधे? बड़ी से बड़ी उपमा भी जहाँ छोटी पड़ जाती है । श्रुतियाँ नेति नेति कहकर चुप्पी साध लेती है,कल्पना के पंख समीप पहुँचने से पूर्व ही थककर ढीले पड़ जाते है , वह तो अपनी उपमा स्वयं ही है, इसलिए तो उनके रूप को अतुलनीय कहा है । वह रूप इतना मधुर ..........प्रियातिप्रिय.........सुवासित..... नयनाभिराम है कि क्या कहा जाये ? मीरा भी केवल इतना ही कह पाई........
थाँरी छवि प्यारी लागे ,
राज राधावर महाराज ।
रतन जटित सिर पेंच कलंगी,
केशरिया सब साज ॥
मोर मुकुट मकराकृत कुण्डल ,
रसिकौं रा सरताज ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर,
म्हाँने मिल गया ब्रजराज ॥
क्रमशः ....................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
[12:01pm, 07/07/2015] Sanju Varma Fb: ॥जय गौर हरि ॥
मीरा चरित (44)
क्रमशः से आगे ...................
चित्तौड़ के रनिवास में मीरा के व्यवहार को लेकर कुछ असन्तोष सा है ।पर मीरा को अवकाश कहाँ है यह सब देखने का ? वह रूप माधुरी के दर्शन से पहले ही ,वह अपूर्व रसभरी वाणी के श्रवण से पहले ही लोग पागल हो जाते हैं तो मीरा सब देख सुनकर स्वयं को संभाले हुये है- यह भी छोटी बात नहीं थी । पर वह अपने ही भाव-राज्य में रहती जहाँ व्यवहारिकता का कोई प्रवेश नहीं था ।
समय मिलने पर भोजराज कभीकभी माँ तथा बहिन उदयकुँवर (उदा ) के पास बैठते याँ फिर भाई रत्नसिंह ही स्वयं आ जाते ।पर धीरेधीरे भोजराज पर भी भक्ति का रंग चढ़ने लगा ।लोगों ने देखा कि उनके माथे पर केशर-चन्दन का तिलक और गले में तुलसी माला । रहन सहन सादा हो गया है और उन्हें सात्विक भोजन अच्छा लगता ।व्यर्थ के खेल तमाशे अब छूट गये है । कोई कुछ इस बदलाव का कारण पूछ लेता तो वह हँसकर टाल देते ।
बात महाराणा तक पहुँची तो उन्होंने पूरणमल के द्वारा दूसरे विवाह का पुछवाया ।भोजराज ने भी पिताजी को कहला भेजा -" गंगातट पर रहने वालों को नाली -पोखर का गंदा पानी पीने का मन नहीं होता ।आप अब रत्नसिंह का विवाह करवा दें , जिससे रनिवास का क्षोभ दूर हो ।"
महाराणा ने भी सोच लिया -" हमें युवराज की चिन्ता क्यों हो ? भोजराज अपने कर्तव्य में प्रमाद नहीं करते , तो ठीक है ; देखा देखी ही सही , भक्ति करने दो ।मानव जीवन सुधर जायेगा ।-"
भोजराज ,कुछ मीरा के प्रति समर्पणं से और कुछ उसकी भक्ति का स्वरूप समझ कर स्वयं उसकी ढाल बन गये ।उदा अगर मीरा की शिकायत ले पहुँची , तो भोजराज बहन को समझाते हुये बोले ," भक्तों को अपने भगवान के अतिरिक्त कहीं कुछ दिखाई नहीं देता -वही उनके सगे है ।और उसी तरह भगवान भी भक्तों के सामने दुनिया भूल जाते है ।भक्तों का बुरा करने और सोचने पर यह न हो कि हम भगवान को भी नाराज़ कर दें ।इसलिए मैं तो कहता हूँ कि जो हो रहा है होने दें ।और बाईसा ! लोग तो भक्तों के दर्शन करने के लिए कितनी दूर दूर दौड़े फिरते है ।अपने तो घर में ही गंगा आ गई और क्या चाहिए हमें ?"
विवाह के छः मास पश्चात चित्तौड़ समाचार आया कि मेड़ता में मीरा की माँ वीरकुवंरी जी का देहांत हो गया है ।सुनकर मीरा की आँखें भर आई -" मेरे सुख के लिए कितनी चिन्तित रहती थी ।इतनी भोली और सरल कि यह जानते हुये भी कि बेटी जो कर रही है , उचित ही है, फिर भी दूसरों के कहने पर मुझे समझाने चली आती ।भाबू! आपकी आत्मा को शांति मिले, भगवान मंगल करे ।"
स्नान, आचमन कर उन्होंने पातक उतारा और ठाकुर जी की सेवा में प्रवृत्त हुईं ।रनिवास में भी सब हैरान तो हुये पर मीरा ने अर्ज किया ,"प्रभु की इच्छा से माँ का धरती पर इतने दिन ही अन्न जल बदा था ।जाना तो सभी को है आगे कि पीछे ।जो चले गये ,उनकी क्या चिन्ता करे ।अपनी ही संवार ले तो बहुत है ।"
गणगौर का तयौहार आया ।प्रत्येक त्यौहार पर मीरा का विरह बढ़ जाता- फिर कहीं ह्रदय में प्राणधन के आने की उमंग भी हिल्लोर भरने लगती । मीरा मंगल समय ठाकुर को उठाते अपने मन के भाव गीत में भर गाने लगी..........
जागो वंशीवारे लालना जागो मेरे प्यारे ।
उठो लालजी भोर भयो है सुर नर ठाड़े द्वारे।
गोपी दही मथत सुनियत है कंगना के झंकारे॥
प्यारे दरसन दीज्यो आय,
तुम बिन रह्यो न जाय॥
जल बिन कमल चंद बिन रजनी,
ऐसे तुम देख्याँ बिन सजनी ।
आकुल ब्याकुल फिरूँ रैन दिन,
बिरह कलेजो खाय ॥
दिवस न भूख नींद नहिं रैना,
मुखसूँ कथत न आवै बैना ।
कहा कहूँ कछु कहत न आवै,
मिलकर तपत बुझाय ॥
क्यूँ तरसावो अंतरजामी ,
आय मिलो किरपा कर स्वामी ।
मीरा दासी जनम जनम की ,
पड़ी तुम्हारे पाय ॥
क्रमशः ...................
॥श्री राधारमणाय समर्पणं ॥
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