वृन्दावन वास
*श्रीवृन्दावन वास*
श्रीगौरश्यामात्मक अति मधुर विग्रह श्रीराधा-कृष्ण के परम अनुपम प्रणय के परम पात्रस्वरूप में चित्रित एवं निर्मल काम-बीजात्मक चित्-ज्योति के समुद्र में प्रकटित उत्तमरस (मधुरस) से देदीप्यमान द्वीप-स्वरूप जो श्रीवृन्दावन है, उसमें उदित जो श्रीवृन्दावन हैं उसका भजन कर।।
अहो! जो मुक्तणों को कदाचित् दर्शन नहीं देती, शुकनारदादि शुद्धभाव से अल्पमात्र भी जिसका अंग अंग प्राप्त नहीं कर पाते, श्रीकृष्ण के चरण-कमलों की वह भक्ति इस श्रीधामवृन्दावन में भावपूर्वक जिस किसी के प्रति कामुकी (इच्छावती) होकर इधर-उधर भ्रमण कर रही हैं।
अहो! सबको बढाई दे एवं स्वयं सदा नीचातिनीच होकर रह। हे बुद्धिमान! इस भाव से श्रीवृन्दावन नामक श्रीराधाधाम में वासकर मान और अपमान को समान, जान प्रशंसा एवं कोटि दुर्वचनों को एक समान समझ, भोजन की अप्राप्ति तथा महासम्पत्ति की प्राप्ति में तथा शत्रु और मित्र में समान भावना युक्त हो।
सुन्दर त्वचा द्वारा ही केवल आच्छादित विकृततम स्त्रीरूप अपवित्र देह पिण्ड को थुत्कार दे,(काम-वासना का अनिवार्य त्याग) अर्थ को (धन को) अनर्थरूप तथा पुत्र, सुहृद और बान्धवों को बन्धनरूप जान। मिष्ठान्नदि खाने में कष्ट मान, उज्ज्वल वस्त्रादिक से तुम्हारा शरीर कांप उठे, तथा सबके आगे शिष्य-भृत्यादि की तरह अति विनीत होकर श्रीवृन्दावन में वास कर।
जो अनन्यभाव से श्रीवृन्दावन का भजन करता है, एकमात्र वही श्रीराधारमण के चरण-कमलों के अपार माधुर्य-सिन्धु का अनुभव प्राप्त कर सकता है।
श्रीवृन्दावन की गुणकीत्र्ति गान करने में मेरी रसना नृत्य करती रहे। यह श्रीधाम सबसे ऊपर विरजामन है। बात को जानने वाला व्यक्ति इस श्रीवृन्दावन का कभी भी नहीं त्याग कर सकता।
श्रीवृन्दावनचन्द्र की कथा तो दूर रही और श्रीवृन्दावनेश्वरी की तथा उनकी सखियों का तो कहना ही क्या है? श्रीवृन्दावन के एक वृक्ष का एक पत्ता भी समस्त जगत को मुग्ध करने वाला है।
हे मन्दमति (विलास-भोगी जीव) ! समस्त साधनों को मन्द जानकर त्याग दे, इस श्रीवृन्दावन में देवताओं को भी दुर्लभ सान्द्रानन्द की प्राप्ति कर।
कर्म, योग एवं विष्णु–भजन मत कर (शास्त्र जंजालों में भी मत उलझ), इनकी बात भी न सुन, श्रीवृन्दावन में जैसे-जैसे वास करने से ही तू परमपंद को निश्चित् रूप से प्राप्त कर लेगा (केवल वृन्दावन का आश्रय वास लें , यहाँ वास का अर्थ v.i.p फैसिलिटीज नही है , संग्रह शुन्य वास हो)।।
‘‘मृत्यु पर्यन्त श्रीवृन्दावन-वास करूँगा’’ यह संकल्प करते ही तुम्हारे समस्त सत्कर्म हो गए, श्रीहरि की आराधना भी हो गई और उपनिषदों का श्रवण भी हो गया।(यह हृदयगत अंतिम संकल्प ही हो रस साधक का)
शत-शत विधर्म होते रहे एवं समस्त सद्धर्म लुप्त हो जायें, यदि श्रीवृन्दावन मुझे अंगीकार कर ले तो मुझे फिर क्या चिन्ता है। (धाम शरणागति के आगे पाप-पुन्य सब व्यर्थ है , हृदय धाम का सदा शरणागत हो)
श्रीवृन्दावन में वास करने के लिए तुमने आशा भी की है और चेष्ठा भी की है, यदि मन्द बुद्धिवश तुम बाहिर भी चले जाओं तो भी दयालु श्रीवृन्दावन तुम्हारे रक्षा करेगा ही। (मन श्री राधावल्लभ चरणों में जो है , मन धाम में ही बस जावें)
अनुपम माधुर्य-राशि के परम माधर्यु को धारण करने वाली श्रीराधिकाजी श्रीवृन्दावन की शोभा में अति लोलुप होकर अपने जीवन (श्रीश्यामसुन्दर) का मन हरण कर रही है। (पूर्ण-ईश्वरत्व का भी मनहरण केवल श्रीवृन्दावन में श्रीप्रिया का सहज स्वभाव करता है , प्रभु से परे कुछ नहीँ अपने ही अंगों में मन हरण सम्भव नहीँ वही सर्वत्र सब कुछ तो उनका मन द्वेत समझता ही नहीँ पर श्री श्यामा जो कि उनकी आह्लादिनी ही स्वरूपा है आह्लादार्थ उनके सुखार्थ उनके मन को हर लेती है , सब कुछ मेरा ही है यह बोध मन हरण नही करता , परन्तु श्रीप्रिया का माधुर्य ऐश्वरत्व या ईश्वरत्व सब भुला देता है उन्हें और वह मैं राधा की निज वस्तु हूँ इस भाव से स्वतः हर लिए जाते है ,जिसे कोई नही हर सकता वह प्रेम स्वरूपा श्री किशोरी जु से हार माननी ही होती है , बिन मन के हरण प्रेमसिद्धि सम्भव नहीँ , केवल शयमसुन्दर ही है जिन्हें सर्वोत्तम उज्ज्वल निर्मल प्रीत प्रियाजु की प्रेम लहरियाँ प्राप्त है । प्रियाजु से प्राप्त प्रेम ने श्यामसुन्दर की सम्पूर्णता को और मधुरित कर दिया है , माधुर्येश्वरी की मधुरता केवल मनमोहन के सुखार्थ है)
आनन्द की सीमा, सौभाग्य रस-सार की सीमा, श्रीहरि के माधुर्य की शेष सीमा और सेव्य गुणों की सीमा-श्रीवृन्दावन ही है। (श्री हरि को जहाँ से रस प्राप्त होता है वह वृन्दावन ही है , समस्त को वह देते ही देते है , वृन्दावन उन्हें भी आंतरिक भाव रसास्वदनात्मक सुख प्रदान करता है ।)
शास्त्रों का विचार भी किया है एवं गुरुगणों की सेवा भी कर ली है, किन्तु मैं तो बार-बार यही देखता हूँ कि श्रीवृन्दावन ही सार वस्तु है। (धाम अनन्यता बिना लीला रस सजीव नही प्रकट होता , भगवत सम्बन्ध की सिद्धि के लिये धाम की अनन्यता और कृपा भावना अति अनिवार्य भावना रसपथिक के लिए है।)
हे सखे! व्यर्थ बकवाद करते-करते क्यों खेल को प्राप्त होता है श्रीवृन्दावन के गुणसमूह श्रवणकर, उपदेशकर एवं गानकर। (जिस धाम ने शुष्क ब्रह्म को तृषित जान उसे नित्य रसिक शेखर ही बना दिया वह किसे वास्तविक रस नही दे सकता, पर हाँ धाम से प्राप्य अति दिव्य वस्तु केवल निर्मल सहज युगल केलि सुख है। धाम से भोग इच्छा करना मणियों के पर्वत पर कंकर ढूंढने सा ही है। धाम स्वतः सहज कृपा से केवल निर्मल श्रद्धा शरणागति से जो देगा वह कही मिल ही नहीँ सकता।)
लोकधर्म विषयक पृथा सहस्र चिन्ताओं में क्यों दुखी हो रहे हो? श्रीमद्वृन्दावन में इस शरीर को रख कर (बसाकर) सुखी हो ।(सब व्यर्थता विषय आदि छोड़ केवल वृन्दावन से सम्बन्ध हो)
तुम्हें किसी का संग करने की आवश्यकता नहीं एवं शास्त्रोक्त कर्मों का भी कोई प्रयोजन नहीं, क्योंकि जिन्होंने अपने को श्रीवृन्दावन के तृण समान समझ कर कृतार्थ जान लिया है उनके लिए कुछ भी करना शेष नहीं है। (मैं श्री नित्य वृन्दावन लीलाभूमि में तृण मात्र हूँ , यह भावना समस्त साधनाओ का परिणाम है। इस तृण को जो स्पर्श आनन्द प्राप्त वह अति दिव्य और अकथनीय है।)
कैसी आशा हो हमें ...
यदि तुम्हें स्त्री दर्शन की लालसा उठती है तो दोनों नेत्रों को निकाल दे एवं यदि श्रीवृन्दावन से बाहर जाने की इच्छा होती है दोनों चरणों को पत्थर से चूर्ण कर डाल यदि श्रीवृन्दावन में वास करने की आशा है तो कभी बलवान् पुरुष तुम्हारे इस देह को बांध कर बाहिर ले जावें, तू तत्क्षण प्राणों को त्याग देना । (पर धाम त्याग की भावना हृदय में न आवें।)
सारे पाप पुण्य एक तरफ धाम कृपा एक तरफ , धाम केवल कृपा करता है । अपराध भाव से नही देखता है क्योंकि यह प्रियाजु की कृपाभूमि है । ...
जो गुरु-पत्नि के पास कोटिबार गमन करता है, अर्बुद विप्र पत्नियों से भी संगम करता है, चाहे सोने की चोरी और मद्यपान करता है, या ऐसे करने वाले पुरुषों के संग रहता है, या दूसरे उद्भट गोवधादि जनित महा-महा पापों को भी करता रहता है तथापि यसदि वह मरण पर्यन्त श्रीवृन्दावन-वास का निश्चय कर उसका अच्छी प्रकार पालन करता है, तो वही महा धार्मिक पृरुष है।
वृन्दावन वास सारकृपा फल-निधि है , हे श्रीवृन्दावन कृपा कीजिये , हमें अपना लीजिये - "तृषित" ... क्रमशः ...
श्रीवृन्दावन श्रीवृन्दावन श्रीवृन्दावन श्रीवृन्दावन श्रीवृन्दावन श्रीवृन्दावन ...
नाचत जहँ नित-नवल जुगल किशोर ...
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