छल किसका ?? तृषित
काहे तुम छलिया । ना , ना हो तुम कोई छलिया । तुम क्या छल सकोगें । अरे प्रेम के अतिरिक्त तुम्हारा कोई विषय-आश्रय ही नहीँ ।
छल तो मुझसे सीखो मेरे प्राणसिंधु रसमणि । बहुत सुना हमने , बहुत पढा भी ... एक क्षण , एक पल कोई एक इंद्रिय डूब गई तुममें तो शेष नही फिर कोई अन्य जगत । तुम ही वहाँ श्वसन , तुम ही वहाँ वायु , तुम ही देह , तुम ही प्राण , तुम ही जीवन , और तुम ही उस जीवन में अबाध बहता आनन्द ।
कोई एक क्षण बस , सच्चा संगम । ये मेरे प्यासे नैना अटक जाते तुममें तो क्या आज बिन निहारे ... ??
यें मेरे कर्ण बह जाते तुम्हारी वेणु माधुरी में तो क्या कुछ अन्य शब्द कोई स्वप्न में भी शेष होता प्राण...
तुम को एक पल जो मेरा एक रोम छू जाता तो कोई व्यसन - कोई भी इच्छा प्रकट हो सकती थी , अरे रस स्पर्श बाद जल की प्यास , तन की भुख भी ... कहाँ ???
सच ,जब जब जल भी पीता हूँ यहीँ सिद्ध होता रस पिपासा को अणु मात्र वो मिल जाते , पिपासा यह तृषा सत्य में प्राणों से बहकर निकलती तो मै जल भी कैसे पीता।
तुम ,तुम्हारी झनक , वो लहरियाँ , वो बातेँ कुछ भी सच होता तो कैसे - कैसे अन्यत्र गति सम्भव होती नाथ ।
माना जीवन बाह्य प्रपंच मात्र प्राप्त प्रेमीजन का रहता । पर प्राणवल्लभ सत्य में दो बात है या तो सत्य में मुझे आपके निर्मल प्रेम की अणु मात्र पिपासा न उदित हुई । अथवा सम्भवतः अयोग्यता से आप ने स्वीकार न किया । ... ना , ना । ना आपने कही कसर छोड़ी ही नही वल्लभ । अरे मैंने दिया ही क्या आपको ... मलिन चित्त बस ।आप सच में दौड़े , लिपटे । समा भी गये , आप बहुत खुश भी थे अपनी वस्तु पाकर ,भले मैंने आपकी इस वस्तु को खण्ड खण्ड कर दिए पर आप मुझ पर इतना प्रेम लुटाने लगे जैसे कोयला - कोहिनूर हो गया । पर हुआ क्या था आपकी यह कोहिनूर चेतना को प्राप्त अनेक अवसर पर भी मैंने उसे कोयला कर दिया । पर प्रिये , तनिक आपको खीज न हुई । हाँ आप मिले , आपने मेरी पात्रता का विचार किसी काल में ना किया । पर प्राणेश्वर फिर यह क्या हुआ , कैसे पुनः-पुनः भव रोग आपके समक्ष ??? आपके सन्मुख ही कैसे अन्य वस्तु पदार्थ का क्षणार्द्ध चिंतन । हाय । काश आप की अणु मात्र सँगता अनुभूत न होती और हृदय दर्शन आकुलता में फट जाता । वह सुखद होता प्रिये । यह क्या किया मैंने , मुझे तो दिवा - रात्रि अहर्निश तुम्हारी प्रीति मात्र होना था । मेरा सत्य उद्घाटित होगया प्रियवर , हो गया । मुझे कभी प्रेम हुआ ही नहीँ । हां , नहीँ हुआ । तुम सामने रहे तो कैसे नेत्र तुम बिन जीवन देख लेते है , ना । सत्य यह है , मैंने छल लिया । ज्ञान कहेगा यह मेरा छल मुझे ही छलेगा । पर नहीँ यह छल मैंने हृदयस्थ प्रियतम को किया । वो सँग , सदा और ... तोहे सँग एकहुँ पल का और गति सम्भव है । ना रे पगले , जा तू , मैंने तोहे छल लियो । मोहे प्रीत कबहुँ न भई । जा ...
जो तोह सँग नेह लगी जातो
तो काहे , काहे तोहे बिनु हिय न फांटतो ।
ना भयो , जा मनहर । तू मन हर हर हार ग्यो । मेरो जंजाल बहुत गहरो है । तेरी कितनी करुणा, प्रियता, कृपा का अनन्त विस्मरण मुझे हुआ । और होगा भी । अरे कहां पाषाणों में प्रेम खोजते हो प्यारे जाओ न अपनी अलिन सँग वहाँ उस सौरभ की ओर जहाँ तुम्हे सत्य में निर्मल प्रेम देने वाली एकमात्र तुम्हारे सुख की सहज स्वरूपा सज-सँवर चली आ रही तुम्हारी ओर ... दौड़ो मनहर दौड़ी ... तव उरमोहिनी , तव उरउन्मादिनी लहराती आ रही ... ... आ रही ।
--- तृषित ।।
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