भई गाढ़ कृपा निज प्रेमी जन पे , तृषित
भई गाढ़ कृपा निज प्रेमी जन पे
जस-अपजस सब विधि हित न होत ,जो विषय-भोग सब विष्टा जान्यो
गेह - देह धरम सब छाड़त , दास हरिदास दास साँचो नेत मान्यो
वमन होत लोक रंजन माहीं , हरि भजन जाँको प्राण बास्यो
लोक-वैभव सब चुभत हरि प्रेमिन को , रसिकन धूलि सृंगार मान्यो
प्राण फांटत मिथ्या-जग माँहि , छिन-छिन वास विपिनराज जिन नैन तांक्यो
-- तृषित --
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