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Showing posts from September, 2019

फेसबुक और विचार तृषित

जगत् सौंदर्य-सफलता-नवीनता-आविष्कारित विचार के प्रति भागता है ।  वास्तविक भावुकों से निवेदन है कि वास्तविक रसभोगी ही रस का आदर करते है सो अपने जीवन की किसी भी सेवा से अन्य से सम्मान अपेक्षित ना ही रहें । अर्थात् कितने लाइक या कितने कमेन्ट्स इससे परे जो है वही इस विचारमंच का सेवक और भोक्ता भी है । विचार शुन्यता ही विचार का भोग है । उछलती लहर कही तो उछलें ।  फेसबुक पर सदा से लिखना मेरा निज स्वार्थ रहा है । विचार सेव करने हेतु हो या उफनते विचारों को उफानने हेतु इस विचारधरा का प्रयोग । जिससे भीतर सहजता शीतलता रहें । अभी कई माह से मेरे अति कम विचार प्रेक्षित हुये यहां जबकि अन्य मार्गों से वह झरते रहे है इस काल में निजरससेवा न मिलने पर बहुत से कथित मित्रों ने छोडा भी यहाँ से । इससे सिद्ध होता है कि मौन स्वीकृति का संग फेसबुक की संरचना नही है । यहाँ वैचारिक तनाव ही स्वीकार्य है । अपितु यू टयूब चैनल के मासिक आंकलन में फेसबुक से 1 से 2 प्रतिशत ही सहभागिता ध्वनिभुत भाव सुनना चाही है अर्थात् 1000 में से 10 । सो यहाँ उछलते लाइक-अनलाइक से परे अब भी निज स्वार्थ से भाव दिये जायेंगें । जैसे वि...

क्या अर्पण करुँ ? तृषित 2016

क्या अर्पण करुँ February 01, 2016 क्या अर्पण करुँ ? मन्दिर जा रहा हूँ , क्या लें जाऊँ , माला आदि । प्रसाद आदि । क्या आखिर ?  शास्त्र तो कहता है खाली ना जाना , भगवान है ।  वस्तुतः क्या हम खाली जा सकते है । सम्भवतः मनुष्य है और खाली भी यें कुछ दुर्लभ है । मानव नित्य भरा है । भरा ना हो तो वह परम् के दर पर दस्तक ही ना दें । हम खाली होने ही तो जाते है , जो जितना खाली हो सका उतना सौभाग्य ।।।  ना जाने क्यों मेरी बात विचित्र होती है पर होती उनकी ही है तो विचित्र होने पर भी , साहस का मन होता है , क्षमा सहित एक और दुस्साहस ।।।  ..... अगर आप भगवत् धाम , दर्शन जाते है । और कोई माला , प्रसाद , दक्षिणा , अर्पण करते है । अपनी क्षमता अनुरूप सभी ही करते है । है न , कोई कहे कि खाली उनसे मिल आइये , तो सब अजीब लगेगा , परन्तु एक विनय कभी जीवन में खाली हाथ ना गये तो एक बार जरूर जाएं , कोई द्रव्य - पदार्थ - वस्तु आदि ना हो । जिसे हम धन कहते है , उसे भगवान धन नहीँ समझते , इसका पता लगता है सन्तों से , उनके अपनों से लगता है जिनके लिए धन का कोई मूल्य नहीँ , कोई वस्तु धन सन्तों को लगी तो वह है ...

सिद्ध-कृपा और स्वभाव । तृषित

*सिद्ध-कृपा और स्वभाव* इसे रसिक कृपा भी कह सकते है । यह अनिवार्य पथ है भावना के पथिक का । सिद्ध कृपा के कई सौभाग्य है परन्तु अभी बात कर रहे है निजभाव स्मृति के अनुभव हेतु सिद्धकृपा । मूल बात पर आते है कि वर्तमान युग है अहंकार के श्रृंगार का । जो भी प्राप्त किया जाता है अहंकार को सजाने हेतु । जैसे पद-शिक्षा-सम्मान आदि की होड़ । अहंकार से शेष अगर यही सब है तब सेवार्थ -परमार्थ हेतु है ।  लोकल ब्रांड कम्पनी की घड़ी-चश्मा-चप्पल-कपडे भी ना पहनने वाली स्थितियाँ  कैसे अहंकार का श्रृंगार छोडकर सजावे वह स्वरूप-स्वभाव जो लीला रस में है और नित्य सेवामय है । अहंकार बडी विचित्र क्रीडा खेलता है , वास्तविक प्रारम्भिक हम पथिकों को इससे सम्भलकर कदम रखने चाहिये क्योंकि मुझमें अहंकार नहीं यह भी अहंकार होने लगता है । अथवा भगवदीय उपलब्धियाँ भी सम्भाले नही सम्भलती । किसी भी प्राप्ति को अपनी मानना ही अहंकार है ।  लोलुप्ति या तृषा से पथ पर गति तीव्र हो सकती है परन्तु अग्नि दूध को पका सकती है वह अकेले खीर नही बना सकती । उसके लिये चाहिये सन्तुलित ताप पर व्यंजन की प्रणाली का अनुभव रखे कोई कलासिद्ध दूध...

आप केवल प्रियतम् हो ।।। बस - तृषित

*आप केवल प्रियतम् हो ।।। बस* हे प्राणेश प्रियतम ! क्यों माना भी जाए आपकी सत्ता और पद को , आपके ऐश्वर्य बोध के वैभव प्रकाश से सरस प्रेम में हित अभाव और बाधा अधिक ही है । आपकी सत्ता से आपकी प्राप्ति का दर्प (मान) मेरा जाग उठता है । और तब मेरा ही दुर्भाग्य , न ..... न मानना , मुझे आपकी ऐश्वर्यता-वैभवता-सत्ता आदि को । ये प्रेम में पीड़ा दायक है , मैं दीन और आप ईश्वर , हे मेरे प्रियतम .... मेरे प्रियतम ही आप ...। आपके माधुर्य से वंचित होने का पथ है , सत्ता बोध ...भले मेरा या आपका । गोपियों ने जैसे ही माना  जगतपति का संग , कर्ता-धर्ता के रंग , तो हो गए आप ईश्वर । और हो गए अन्तर्ध्यान । ईश्वरता हिय में भी कहाँ स्पर्शित होती जैसे ही विभुता बोध संग द्वैत हुआ तो चले जाते हो । प्रियतम वत ही हिय भरित स्पर्श होते हो । प्रेममय यह हित रूपी व्यापक रसीला अद्वैत आपको मेरे भीतर से पल भर नही जाने देता । तत्वमसि केवलं यें दृष्टि अटल सत्य है परन्तु ईश्वर रूप में नही । ईश्वर मानकर प्रीति तो जीव का व्यापार है , दिव्य सुखों का हेतु साधन भर वह तो ...जैसे बिन्दु में सिन्धु होती एक लालसा । आप मेरे हो  ......

प्रेमी और प्रियतम । तृषित

*प्रेमी और प्रियतम* वास्तविक साधक को यही मार्ग और मार्ग में यही आश्रय-विषय मिलते है । प्रेमी और प्रियतम । प्रेमी को छुए को प्रियतम मिलने आ रहे हो यह प्रियतम रूपी सारँग रसवर्...

जानना और मानना । विज्ञान । तृषित

रस तत्व का एक सिद्धांत है वह जानने पर दूर होता जाता है । और प्रेमी के निकट होता जाता है । फूल-मछली-गिलहरी-खग-भृमर-तितली को बिना छुए निकट करने का एक सहारा (आश्रय) है , रसप्रेम । दृष...

प्रिया का हेतु प्रियतम माधुर्य-विलास , तृषित

रिसते हुये पीतांबरधारी खिलती हुई कनकलता ऐसो कर्णामृत है श्रीकृष्ण माधुरी श्रीप्रिया हेतु । कनक वल्लरि श्रीप्रिया को सिंचित इसी रस से किया जा सकता है । यही उनका जीवन-प्र...

साधक चटनी तृषित

*साधक चटनी* साधक शब्द की सभी बावड़ीयों में प्राप्त रस रूपी जीवन को सन्मुख प्रसाद में पाते वह चटनी ।    आत्मिय-दर्पण सन्मुख रस । साधक में साधुता भाग 28 ...

बांवरी रतियाँ वार्ता 1

जीव ऋषियों की छिरकंन है (चिंतन छिर्कण) । सो जीव को एक गौत्र में जन्म मिला है । परन्तु  जीव जब तक स्वयं को ही गुरु माने तब तक अहम् मे रस है और जब किन्हीं प्लास्टिक के फूल और असली फ...