बांवरी रतियाँ वार्ता 1
जीव ऋषियों की छिरकंन है (चिंतन छिर्कण) । सो जीव को एक गौत्र में जन्म मिला है ।
परन्तु जीव जब तक स्वयं को ही गुरु माने तब तक अहम् मे रस है और जब किन्हीं प्लास्टिक के फूल और असली फूल कौनसा यह बोध स्थिति ना हो तब जिसे भी वह गुरु (आइडल) माने । या वह शास्त्र द्वारा उपलब्ध गौत्र रीति से स्वयं को बोध शृंखला का छींटा मान वंशज मानते हुये जीवन निरूपण करें , जीव है छिरकन ऋषि (आचार्य/गुरु छिरकन)।
जीवन एक मर्यादा लीला है । आचार्य मंजरी की हृदय विलास श्रृंगार झरण है जीवन । प्रिया पद तली पर ...है यह जीवन । (श्रृंगार रेणु होने की लालसा को भुला हुआ लालायित गुमशुदा भव जंगल में यह जीवन)
मैं एक प्राणी जो स्वयं को केवल देह भरा जीवन माने अपने अहम् और सुन्दर खोजते हुये ही विकसित होता है । क्या उनसे प्रेम सम्भव होता । श्रृंगार रेणु की स्थिति और कहाँ अनन्त जीवनों की स्वप्न झाँकियाँ ही हमारी रात की नींद चुरा रही हो ।
स्वप्न भी रंग जाता है प्रेम में । मैं तो अपनी मंजरी जू की झरण हूँ (नाम मिल जाना आचार्य प्रीति मंजरी का) । अपनी भूली नित्य-प्रीति का सम्बंध भूलें हुये मैं कैसे ग्रहण कर पाई अपनी गुरु मंजरी को यह स्थिति पाना सिद्धांत है ।
और जीवन को मर्यादित भाव आहार मिल रहा हो । अर्थात् जीवन होने को उठी हिय केलि गीत का सचेत हो उठना हमारी गीतावली नहीं अपितु आचार्य प्रीति से गुँथा श्रृंगारित भाव ।
जीवन का एक सहज वह प्रीति उमंग हो जाना जिसमें हमें (तस्वीर में दिखती देह रूपी मैं को) लगता हो कि हमें प्रियतम से प्रेम हो गया हो ।
देहाध्यास में देहअभाव से गोपी हो गई यह मान्यता प्राप्त देह भक्ति की अवतरित किंकरीयों की शृंखला को छूने को चलती हुई मेरी वह दशा जिसमें वह मिलें और मैं एक छोटा झूठा सा जीवन हुई स्थिति को ही मैं माने बढती अलि (रसपिपासी)
फूल कोमल है इसका अनुभव केवल देह से लेनी वाली स्थिति को कैसे वह अप्राकृत चिंतन छूने लगते है जिनमें हिय पर स्मृति की सुगंध श्रृंगारित होकर वर्षित हो जावें । रस पिपासु जीवन का वह सखी रूपी भावदशा (जीवनपिपासु) हो जाना । रस के समुद्र में भीगे पाना स्वयं को , पानी के अकाल में भीगे हीन भुत काल के उस स्वयं को ।
यह स्वयं ही भक्ति है । स्वयं को सत्य प्रीति कहाँ छुई । किस मंजरी की कुंज में कौन मंजरी किस सेवा में सज कर श्रृंगार हो सकी वह जीवन गूँथती स्वयं को रस देती मैं की पूर्व काल की लघुतिमा जीवन देती मैं । स्वयं को देहवत श्रृंगार में पाकर हर्षित पाकर मैं , कैसे अप्राकृत भावदेह के भाव कलापों से छूटते श्रृंगार पात्रों की प्रीति से खेलते प्रियतम की वह मैं प्रिया । श्री राधिका की झरित मंजरी हो उठने का उन्माद मैं । सजाता चला पहुँचा अपनी प्राणसखी श्रीललिते के हिय उल्लसित कुँज की लता से लिपटी मैं । उस निधिवल्लरि को चुपके से अधर छुती मैं श्रृंगारित् कलि कभी उठाती स्वयं को रजवत् मैं ।
विलसते जीवन का वह विलास जो वह जी रहा है वह उसकी आचार्य प्रणाली है ।
जब तक संजय लीला भंसाली या अन्य फिल्म निर्देशक को आइडल माने मैं जीवन गूँथन करती एक स्वप्न वेल थी । वह जीवन तत्क्षण आचार्यों की दृष्टि में देखकर चलचित्र पर लो तो पायेगें एक निर्धन दशा का बलात् छद्म वृतियों में चूर चूर होता अनन्त जीवन उन्मादों का वह शोर ।
वह शोर आज युगल विलास की मधुर वेणु के रस वत् व्यसन को स्मृत कर लेने के संयोग रहने भर के लिये बाँवरि श्रृंगार युगल दासी झरण तृषित । गुरु कृपा पिचकारी का एक छीट पीन की तृषा का छींट ।
आज वह बाह्य जीवन है । पर वह मैं कहीं अखण्ड अनन्य रस में छुटने से बेसुध और उस बेसुधी में सुध (चिंतन हुँँ कौन मैं) खोजती ध्वनि भुत पद तली की छाप को पढ़ती नजर । (वाणी पाठ)
राग धनाश्री के कृपा सँग से उपरोक्त भावना रही । भाव राग भी जीवन रूपी गुरुराग हो कर मिल रहा । छुटती विस्मृति के स्मृत जीवन का वह क्षण खोजना जिसमें अपनी कुँज कौनसी है यह निहार सँग पिया जा रहा हो वह कृपा है यह वेणु राग दासी पर वर्षित रीति है गुरु कृपा रीति-प्रीति रूप गुरु। (मंजरीरूपी -गुरु)
अपनी स्मृति को भूले इस अपराध वत विष तुल्य जीवन का स्वप्न वत मिला वह जीवन श्रृंगार गाते हुये उमँग में भीग उमँग रहा वह उन्माद आलापती वेणु की वार्ताओं से गीला हिय जीवन तृषित हो जाना ।
हिय यात्रा है भक्ति । हिय क्या है ? देह मैं है हिय या कोई कृपा वत् अनुभव । कि मैं इन कुंजेश्वरी की इन कुँज मंजरी श्यामाश्याम सेविका हूँ । अनुभव पान है भक्ति । जो खिलती है सच्चे प्रेमास्पद का अनुभव पीने को आतुर दशा । भाव एक दशा है
एक दशा एक स्थिर वह श्रृंगार प्रसादी । वह सुखी प्रसादी माला का अनुभव पीकर भीगती दशा है भक्ति । भक्ति वह अनुभव काल है जब अनुभव है कि मैं किसकी वस्तु हूँ और क्या खेल रही हूंँ
जैसा कि प्रियतम की प्रकट लीला में अनन्त जीव सन्मुख है जैसे उद्धव पर कोई उनकी मोहकता पर उतना पागल नही हो रहा जितना उन्हें हमारे उन्माद अनुरूप हो जाना चाहिये क्योंकि रसिक हिय के पात्रों से जब रसप्रीति भीगती वर्षा से भीगती दशा (रसिक वाणि श्रवण-पाठ सचिन्तन) से यही अनुभव हुआ है कि प्रियतम के सौंदर्य में भीग निहार जुटा पाना असम्भव देह स्थिति अनुभव में भीगना गोपीभाव है । वह गोपी भाव ही रसिक प्रेमी आदर्श वह जीवन मानते हुये गृहण करते है जिन्होंने कृष्ण सँग को वैसे किया जैसे कृष्ण-सँग होना चाहिये ।
फिर कृष्ण-सँग प्राप्त वह स्थिति भी उनके सँग से चूर-चूर हो जावें जिसने श्रीकृष्ण के प्रत्येक सँग को गोपी मान लिया हो । पितामह भीष्म में गोपी निहारते भागवती कृपा रसिक वाणी कृपा ही है । गोपी को निहारा जा रहा है क्योंकि उन्होंने ही मधुर को मधुर पाया और पिलाया । पिलादे वह दशा को अर्थात् सत्य में प्रीति दशा की वह स्थितियाँ ।
यही स्वयं की दशा जो अपनी ही सुरत बदलती तस्वीर हो । अर्थात् यह दशा नित्य किसकती हुई , आगे होते हुये श्रृंगार की एक जीवन छबि चित्रांश को सजा रही ...नित्य स्वयं और स्वयं होकर सज रहा वह कुँज(स्मृति) अपनी खोई हुई कि जब मिले नई सी लगे । किशोरी दासी प्राप्त रसिक कृपा झरण स्थिति । शेष प्रीति का मिलन यन्त्र मन्त्र में प्रकट नही हुआ । प्रेम सर्वतो सुन्दर होकर अवतरण लेकर सबके सन्मुख अवतरित होकर लीलार्थ प्रकट युगल मिलन भी रसिक कृपा से हो सकता है वरण प्राप्त लोक स्मृति में प्राप्त बोध से राधाकृष्ण मिलन एक किवंदति कहना भी धर्म है । क्योंकि भक्ति रस सिद्धांतों में यही तक सत्य के प्रति प्रीति अनुभव पाया गया है ।
जितना वह अनुभव उतना वह स्वयं है ...
झरित श्रृंगार या भरित श्रृंगार या नृत्यांगित उन्मादित किशोरी सखी अनुरागों का समाज सत्य को सत्य में विलास में पौढायें सुलाय ही हर्षित होता रसरीति भावों में सजती उन्माद दशा का वह छींटा जिसमें रस रीति और अपनेपन का अनुभव हो पर कौनसा श्रृंगार हूं यह चिंतन स्पष्ट ना हो सके । अर्थात् झुला या सेज या पायल क्या या निजता अनुभव विस्मृति की ही हीनता दोनों मिलकर अब तक यह न जाँच सके वह नित्य दशा कि रसपान(करवा) या स्मृति या पौढाई या बातें क्या प्रिय मान प्रभात में मिलेगी किशोरी जू को मैं कौन सो सुख तत्काल दे सकूँगी यह भूली स्थिति किसी शरण में पाकर ही स्वयं को पाता है आभरणिका सेविकाओं के गुन्थन में दबी श्रृंगार आकृति की कभी क्या तो कभी क्या झिलमिल निहारती खोई हुई मिली खुद से मिलती हुई वह दशानुभव (भक्ति) । श्रृंगारिणि आभरणिका की श्रृंगार गौरश्यामलता के लाड भरे हिय से ललित हिय तक ठहरी श्रृंगार छबियाँ ।
*श्रीराधारानी चरन बंदौ बारंबार।*
जिन के कृपा कटाच्छ तैं रीझैं नंदकुमार।।
जिन के पद रज परस तें स्याम होयँ बेभान।
वंदौ तिन पद रज कननि मधुर रसनि के खान।।
जिनके दरसन हेतु नित बिकल रहत घनस्याम।
तिन चरनन में बसे मन मेरौ आठौं जाम।।
जिन पद पंकज पै मधुप मोहन.दृग मँडरात।
तिन की नित झाँकी करन मेरौ मन ललचात।।
'रा'अच्छर.को सुनत हीं मोहन होत बिभोर।
बसै निरंतर नाम सो'राधा'नित मन भोर।।
यह वन्दना प्राप्ति होना ही मैं ना हूँ ।वरण जो हूँ मैं ही हूँ । कहीं हूँ स्वयं के लिये मैं हूँ ।
...एक बार मेरे मन उदाहरण के लिये एक बार सामुहिक भक्ति कुँज को जीने की सोची । कि लिखित भावना की एकता में बँध कर एक जीवन पर खडे होकर सँग करें । आओ हम बिन मिलें अपने युगल की बात करें तो मैनें पाया कि बात कहनी सबको थी सुननी किसी को शायद ही शायद से थी । क्योंकि जहाँ हूँ मैं अपने लिये ही हूँ । भक्ति के स्तर पर मैं लाइफ एडिटर भी हूँ यह अनुभव मिल चुका होने पर भी उसमें एडिटींग नही की जाती । पर कथा में वही जीव मौन और सामुहिक मौन अपेक्षित होने पर बोलता मिला क्योंकि एडिटींग करने वालों की कतरी सत्य प्रीति पत्राचार (चेट) में उनसे बिन पूछें उड़ रही होती है जबकि लोककथोत्सव में विशेषत: देह सँग अहम् को छोड नही पाता तदपि अलौकिक या आलौकिक स्थिति पर सहज चेतना व्यसन पान करने लगती है (जीवन में डुबकी -रसलालसा)
प्रेमास्पद में निजता सुखी हो इतना अभियोग वान्छा हो । वह निजता पृथक् छाया भी देखे बिना सुखी हो इतनी कोमल हो ।
आज किसी ने कोई बात ना की ।
हम ही कहते गये जश्ने-मुलाकात, वह बस सुनते गये ।
ठहरे हुये सागर में छिपती लहरों को निहारने चले गये
फिर कभी यह रात होगी
कोई अधुरी नई मुलाकात होगी
Comments
Post a Comment