राग अनुराग , तृषित
*संगीत का गाढ असर अनुभव करने हेतु इंटरनेट पर सुलभ पुराने और गहरे वाद्य संगीत को सुनना चाहिये*
क्योंकि उससे अनुभव होगा कि वह ध्वनि भावहीन नही है ।
भावहीन स्थिति में अगर श्रृंगार रस की राग के सँग से असर होता हो तब यह नही कहा जा सकता है कि राग और अनुराग दो अलग लोक है ।
सुरहीन के लिये भी एक अर्थ है असुर । क्योंकि सुर प्राप्ति हेतु असुरत्व ही भंग करना होता है । पुराने राग मर्मज्ञ असुरता से परे अति कोमल हिय के होते रहे है । राग का सम्बन्ध उपासना से रहा है , फिर वह राजसिक-भोगी को जब रिझाने लगी तब रागाश्रयी में दोष दिखने लगे है जिसे सभी में होना माना गया है जबकि वास्तविक सुर प्राप्त अति कोमल मधुर हिय ही होता है ।
*राग सहचरी है तो अनुराग मंजरी है*
राग से नही अनुराग से गाओ यह कथा स्वयं के रागहीन होने की व्याख्या है ।
20 वर्ष राग अभ्यास बाद यह बात उसी भावुक से कहते नही बनेगी । क्योंकि ऐसी स्थिति स्वर(सुर) भंग नही सँग करेगी ।
मोहे भी अपने में राग ज्ञान नही है । पर रागात्मक का आदर रहना रहना चाहिये ।
वास्तविक रागात्मक या रागानुगामी का रागगीत भावविहीन होगा यह असम्भव है । सभी रागों में सहज निजभाव है ।
अनुराग मनोकल्पित गान हो तब वह राग अनुसरण लालसा में नही ।
राग अनुसरण एक साधना सो राग प्रणाली को भावप्रणाली से पृथक् बताया गया । जबकि सभी कला भाव का श्रृंगार भर है ।
मीराबाई के चरित से राग और अनुराग में भेद कर बात की जाती है । उसे कहकर सुनकर यह लगता है कि हम रागात्मक तो नही पर अनुरागी है ।
अहंकार की सेवा करता कोई भी तर्क गन्तव्य से दूर ही करता है ।
रागात्मक लीला का अनुभव होने के लिये सुलभ हुई रागों के प्रति आदर होवें । हर राग का अपना रस और भाव है ।
श्रृंगार रस की राग से हृदय में युगल की केलि का श्रृंगार दर्शन स्फुरित होगा ही होगा ।
करुण रस से हृदय गलित होगा ।
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