सिद्ध-कृपा और स्वभाव । तृषित
*सिद्ध-कृपा और स्वभाव*
इसे रसिक कृपा भी कह सकते है । यह अनिवार्य पथ है भावना के पथिक का । सिद्ध कृपा के कई सौभाग्य है परन्तु अभी बात कर रहे है निजभाव स्मृति के अनुभव हेतु सिद्धकृपा ।
मूल बात पर आते है कि वर्तमान युग है अहंकार के श्रृंगार का । जो भी प्राप्त किया जाता है अहंकार को सजाने हेतु । जैसे पद-शिक्षा-सम्मान आदि की होड़ । अहंकार से शेष अगर यही सब है तब सेवार्थ -परमार्थ हेतु है ।
लोकल ब्रांड कम्पनी की घड़ी-चश्मा-चप्पल-कपडे भी ना पहनने वाली स्थितियाँ कैसे अहंकार का श्रृंगार छोडकर सजावे वह स्वरूप-स्वभाव जो लीला रस में है और नित्य सेवामय है । अहंकार बडी विचित्र क्रीडा खेलता है , वास्तविक प्रारम्भिक हम पथिकों को इससे सम्भलकर कदम रखने चाहिये क्योंकि मुझमें अहंकार नहीं यह भी अहंकार होने लगता है । अथवा भगवदीय उपलब्धियाँ भी सम्भाले नही सम्भलती । किसी भी प्राप्ति को अपनी मानना ही अहंकार है ।
लोलुप्ति या तृषा से पथ पर गति तीव्र हो सकती है परन्तु अग्नि दूध को पका सकती है वह अकेले खीर नही बना सकती । उसके लिये चाहिये सन्तुलित ताप पर व्यंजन की प्रणाली का अनुभव रखे कोई कलासिद्ध दूध को खीर बना दे । क्योंकि सोम रस पान आतुर साधक के पथ पर सभी षोडशी कला प्रकट हो यह वह अपनी ओर से तभी चल सकता है जब वह शुक्ल पक्ष में खेल रहा हो । जीव जो कि बध्य है , आवृतियों हेतु अमावस्या को छूकर पुन: प्रथमा पर आ गिरने को ...वह कैसे इस चेतना की इतनी मौलिक स्मृति पा लें जो इस चेतना का निजभाव है ..स्वभाव ही है । इसके लिये उसे स्वयं को क्रमिक मिटाना होगा तब अमावस्या (हिय में कृष्ण-सँग) रूपी लोलुप्ति से मधुपान तृषा लेकर आगे बढे गलित होने के लिये चेतन बुझते हुये (निर्वाण सुख के भी पार का सहज सौंदर्य नखमणिप्रभा चंद्रिका में भीगने भाँति) धीरे-धीरे स्वभाविक शुक्ल प्रकाश (गौरांगी-प्रीति) से भर कर भावदेह (मंजरी) इच्छा रूपी पूर्णिमा को छू लें ।
बाह्य जगत को निहारिये , क्या किशोरी मंजरी प्राप्ति यह लोलुप्ति भी प्रकट में सुलभ है । क्यों नहीं है... क्योंकि भोगदेह से आत्मीयता का अनुभव है । मन्दिर जाना अथवा पूजन करना भी उसी भोग-जीवन का ही एक अंग है उससे विछोह ही पुकारा नही जा रहा । यह वैसी स्थिति है जैसे पिंजरें में पंछी को मुक्ति अभिलाषा भी न हो । फिर मुक्त होना भर उसे अति विचित्र सुख लगें (मोक्ष) । वह अपना वन्यक्षेत्र और उसमें अपना घरोंदा भुल ही चुका हो क्योंकि अनन्त जीवन के बंधनों संग वह चेतना स्वयं को प्रपंच से पृथक् कैसे विचारें ? साधना में अपनी व्याकुलता हो तब भी निजस्वभाव अनुभव हेतु अपनी मौलिक स्थिति का उदय हो जाना अनन्त स्मृतियों से मुक्त होकर विस्मृति को छूकर फिर प्राण की स्मृति में उतरना बडा विज्ञान सिद्ध पथ है जबकि जैसे-जैसे चेतना आवरण उतारती है उसके सभी बोध और सभी धर्म छुट जाते है । प्रेम पथ पर व्याकुलित होकर गोपी स्थिति तक छुई जा सकती है । (श्रीकृष्ण-आसक्ति) जबकि यह भी कृपा भावित ही स्थिति है क्योंकि कृपा स्पर्श हुये बिना कोई जीव आवरणों को जुटा सकता है पर उन्हें भंग नही कर सकता ।
निदान बडा सरल है , निज वास के प्रेमी लेने आवें और लें उडे संग संग उसी वन के उसी घरोंदे तक । सिद्ध कृपा । जिनकी स्वभाव स्थिति प्रकट है वह प्रति सन्मुख स्थिति अथवा लोलुप्त भावुक की निज स्वभाव स्थिति को ही देखते या अनुभव करते है । अर्थात् मानिये श्रीपाद रूप गोस्वामी जू की प्रकट भाव स्थिति में श्रीपाद जीव गोस्वामी जू सन्मुख होवें तब मंजरी स्थिति को भीतर इनकी मंजरी स्थिति ही अनुभव होगी । प्रकट स्थिति में भाव प्रवाह वैसे ही है जैसे विद्युत प्रवाह होता है और उसके सही सम्पर्क से उपकरण सचेत हो उठता है । जैसे पंखा जब ही पंखा होगा जब विद्युत मिलेगी विद्युत विहीन पंखा सेवा न कर सकेगा । सो भाव प्रवाह होता है भाव के सम्पर्क में होने से क्योंकि अपनी ओर से साधन करेगें तब कितना और कहाँ तक कोई लौटेगा , प्राप्त-ज्ञान जहां तक लें जायेगा वही तक ...बस । सो सिद्ध रसिक संग में निज भाव छुआ जा सकता है क्योंकि उन्हें उस जीव का वह भाव अनुभव हो सकता है तत्क्षण... सेवामय-भावमय । आम के चूर्ण को चख कर कोई बता सकें उसे कि उसका वृक्ष कैसे दिखता है । स्वयं चूर्ण कहाँ से आम-वृक्ष को प्रकट करें सो स्वभाव भावनयन आदि से चख कर बताया जा सकता है रसिक-सन्तों के । वह सिद्ध रसिकजन भावुकों को काल्पनिक सखी स्वरूप नही देते , निहार कर अनुभव कर ही प्रदत करते है स्वभाव और स्वरूप । हो पर सिद्ध महाभावित नित्यलीलाभरित सिद्ध प्रकट भावविभूति रससुधा से अभिन्न रसिक । अगर कोई भौतिकी स्वार्थ हेतु किन्हीं को काल्पनिक भाव स्वरूप बता भी दे तब सम्बन्ध सिद्ध नही हो पाता है क्योंकि पंखे को चलाने के लिये सच्चा करंट मिलना जरुरी है । जीव केवल व्याकुलित-लोलुप्त होकर प्रपंच से परे नित्यविलास भावित सुधारस सिन्धु श्री रससिद्ध आचार्य चरण की जीवन में अवतरण की प्रतिक्षा करें । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । (अप्राकृत स्वरूप से गुप्त रखते हुये रसिक या सखी कृपा या सिद्ध कृपा से भी स्वभाव-तृषा स्पर्श सम्भव है) दूध की माखन या खीर होने की इच्छा भले दूध को अपने में कैसे प्रकट होगी ? वह इच्छा अवतरित होती है । श्रीवृन्दावन ।
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