प्रेमी और प्रियतम । तृषित

*प्रेमी और प्रियतम*

वास्तविक साधक को यही मार्ग और मार्ग में यही आश्रय-विषय मिलते है । प्रेमी और प्रियतम ।
प्रेमी को छुए को प्रियतम मिलने आ रहे हो यह प्रियतम रूपी सारँग रसवर्षा ही भावसाधना है । अथवा प्रियतम को छूने को जा रहे भावुक को प्रेमी ले जाने आ रहे हो । वस्तुतः दोनों में एक की भी माँग होने पर द्वितीय वृति सहज प्रकट है । कोई प्रेमतुला के एक पलडे पर भार वत् बाट होकर गिर जावें तो प्रेमतुला को झुलाने हेतु दूसरे पलड़े पर खेल रहे होते है प्रेमी और प्रियतम । श्री  प्रभु को कोई प्रेमी पावें अथवा प्रियतम मान लें तब जीवन में वह प्रेमी रूप में प्रकट ना हो यह सम्भव ही नही । प्रियतम के इतर का क्षेत्र मात्र प्रेमियों से भरा क्षेत्र है यहाँ तब ही प्रियतम ध्वनित हो सकेगा जब किसी रसिकभृमर में इतना रस भरा हो कि पुष्पवत उनका ही संग अनन्त भृमर-अलि वृतियां कर रही हो ।
सहज प्रेम में भरे रसिक हृदय के जीवन की चौखट पर या तो प्रियतम खडे है अथवा प्रेमीहृदय में वह छिपकर खडे है । यहाँ प्रियतम को हिय भरे हृदय को ही प्रेमी कहा जा रहा है और प्रेम में पूर्ण भरे स्वरूप को ही प्रियतम । प्रेमी में प्रियतम भरे है और प्रियतम में प्रेम पूर्ण भरा है । अद्भूत जीवन है यह कि मात्र संग रह जावें प्रेमी और प्रियतम । इस जीवन को छूने का सुत्र है कि किन्हीं प्रेमी हिय को अज्ञातवश छू दिया जावें (रसिक आश्रय में उनके हियभाव का ही आश्रय सार है)  अथवा प्रियतम को प्रियतम स्वीकार कर लिया जावें तब जीवन में मात्र प्रेमी ही प्रेमी भरे संग होगें ।
रसिक हिय छिपे होते है किन्हीं कोठर में और ऐसे धुंधली कोठरी की सेवा में होते है प्रेमी और प्रियतम मात्र । अगर कोई महाभावुक अपने प्राण रसिक स्वरूप को सत्य में रसिक अनुभव कर सकें तो वह पायेगें कि वहां उपस्थिति मात्र है प्रेमी और प्रियतम की । भगवत-भागवत में कोई भेद है नही ..परस्पर प्रीति ही यहां भरी है । भागवत (प्रेमीरसिक) में भगवदीय मधुरता भरी होती है । भागवत वही पात्र है जिसे कोई भुल से भी छलका दे अथवा हिला दे तो रस ढर पडे श्रीहरि नाम-गुण-लीला आदि का । भीतर मात्र लीला भरी हो अपने प्रियतम की , जिसमें भरा हो उनका प्रेम और अनन्त प्रेमी । ठीक वैसा ही दृश्य बाहर रहेगा प्रेमी के जीवन में भीतर रस होने से प्रेमी-प्रियतम ही जीवन में निज रस पीने हेतु भृमर वृति से संग होगें । सो रसिक अपनी ही हिय चौखट की सेवा में होते है क्योंकि प्रियतम और प्रेमी ही इस चौखट पर है । रसिकहिय अपने प्रेमास्पद की प्रतिक्षा सह नही सकते अर्थात् प्रेमी या प्रियतम को प्रतिक्षा में नही रख सकते । प्रियतम कितने ही अलबेले-निराले अथवा विभत्स रूप ही लेकर सन्मुख होवें रसिकहिय में भरी मधुरता की दृष्टि को भंग नही कर पाते सो रसिकहिय में किसी भी मलिन के प्रति जो करुणा दृश्य है वह अपने प्रियतम को मानकर उनके स्वरूप इच्छा के खेल को अनुभव कर भीगे हिय का रूदन ही फूट रहा होता है । सत्य मानिये अथवा ना भी मानिये प्रेमी से प्रियतम और प्रियतम से प्रेमी को अलग करने का कोई सुत्र नही है । रसिक हिय  द्वार पर दर्शन आतुर होने पर भीतर प्रियतम को पुकार कर नयनों में बैठा लेने पर रसिक हिय की उछालो में भीगा रहा जा सकता है जब खेल रहे हो मात्र प्रेमी और प्रियतम । अथवा प्रियतम ही प्रेमी है और प्रेमी ही प्रियतम इस गूँथन को पीकर अनुभव कीजिये प्रियतम में प्रेमी और प्रेमी में प्रियतम । जीव की मौलिक माँग है प्रियतम परन्तु यह माँग होने हेतु वाँछा होनी चाहिये प्रेम की और वह मिल सकता है ऐसे प्रेमी से जिसमें अति भर गया है यह और अति भरे प्रेम के मधुर भार से ही वह रिस रहा हो, बस वह सुगंधें भर कर पुकारिये इन प्रेमी के हृदयधन को जिससे यह प्रेम वल्लरि सूखी ना हो भीगे बसन्त में , होली में , वर्षा में , शरद में । प्रियतम हिय वास में प्रेमी से माँगते है केवल प्रेमजीवन । क्योंकि नित्य-प्रेमरस जीवन ही रूपवत् प्रियतम है । प्रियतम और प्रेमी की एक ही आराधना है.. प्रेम    । प्रियतम की जो मौलिक माँग भी लग गई है और वह हिय आरूढ़ हुये है तब ही अंकुरित हुआ है प्रीति का वह भावरस रूपी प्रेम जीवन जो उन्हें वांछित हो सकता है जिनका वह नित्य जीवन है । अर्थात् प्रियतम रूपी माँग पुष्ट होती है प्रियतम को हिय पर विराज कर उछलती प्रीति विलासों की सेवा होकर निज हिय विलास में छके प्रेमी रह जाने पर । सो प्रियतम से ही प्रेमी का पोषण और प्रेमी से ही प्रियतम का पोषण होने से दोनों में तनिक भी भिन्नता नही है । कुछ भिन्न होता है प्रेमी-प्रियतम में तो वह तब जब हियरूपी गद्दी आरूढ़ होकर रस देना हो रहा हो अर्थात् प्रियतम हियगद्दी पर बैठ जिस विलास सुख को चाह रहे वह प्रेमी का ही निजतम पोषण है और प्रेमी हिय गद्दी पर बैठ प्रियतम के जिस सुख को चाह रहे वह प्रियतम का ही निजतम सुख है। हिय रूपी एक गद्दी पर आरूढ़ होकर खेलते रसिक हृदय में प्रेमी-प्रियतम । अपितु जिस हिय गद्दी को (भावना) को प्रियतम हेतु नही गुँथा गया वह हिय प्रेमी है ही कहाँ? सो प्रेमी और प्रियतम के खेल को पीते भी है तो प्रेमी और प्रियतम और रसिक स्थिति को स्पष्ट यह बात अनुभव होती है सो प्रति संग उनके हेतु है प्रेमी-प्रियतम का संग । यह सभी खेल प्रकट होते अहं के सम्पूर्ण गलित स्थिति से मधुता से भीगी हिय धरा पर खिली प्रीतिकुँज में । अहम् ही प्रेमीप्रियतम के दर्शन का आवरण होकर इस लीला को प्रपंच निहार सकता है । प्रेमी और प्रियतम दोनों ही प्रपंच अनुभव से परे प्रेम विलास में भरी स्थितियाँ है । तृषित । अब रसिक निकट सेवक भावुकों से अनुरोध है आवरणों का पिंजरा ना रखिये किन्हीं प्रेमी-प्रियतम के मध्य । निश्चिन्त रहकर निहारिये प्रेमी से मिलते मात्र प्रियतम है और भीतर हिलोरे लेते प्रियतम को सुख देने निकट आते ही प्रेमी है । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । देह के सन्मुख से प्राणाधार को हटाया जा सकता है , इस हिय से प्रियतम आपको कौन झार सकेगा ??

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