जानना और मानना । विज्ञान । तृषित
रस तत्व का एक सिद्धांत है
वह जानने पर दूर होता जाता है । और प्रेमी के निकट होता जाता है ।
फूल-मछली-गिलहरी-खग-भृमर-तितली को बिना छुए निकट करने का एक सहारा (आश्रय) है , रसप्रेम ।
दृष्टि प्रहार से भी आप किसी मक्खी का विज्ञान खोजोगें तो वह दूर जाएगी । और प्रेम से ही निकट आयेगी ।
प्रेमी का बोध सेवार्थ है । जीव का बोध भोगार्थ । सिंह को देखकर हिरण क्यों भागता है ??
तदपि शिकारी के पास ही किसी भोग द्रव्य का विशेष ज्ञान होता है जैसा बिल्ली जानने लगती है पक्षी किस दिशा की ओर उड़ेगा यह अनुभव उसने स्थिरता से जुटाया है ।
परन्तु भोगार्थ जो भी ज्ञान प्राप्त होता है वह उस तत्व से रसार्थ नही है सो वह तत्व भोग-स्पंदन होने पर संसृत होने लगता है ।
*शरणागति जिज्ञासा का विपरित तत्व है*
*जिज्ञासु स्वभावत:भोगी होने से भक्षक हो सकता है* जानने की रुचि भी एक भोग ही है
सेवक जितना स्वामी को कोई नही जानता , भृमर को सर्वाधिक पुष्प के पराग-कणिका (मंजरी) जानती है
*जानने से मानने पर आ जाना भक्ति है*
मनुष्य जिसे विज्ञान कहता वह केवल एक दृष्टि रखता है _ संहार (प्रलय) । उदाहरण अनन्त है , मोबाइल गेम से विदेशी फिल्में या सिद्ध वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी सब संहार निहारती है ।
वैज्ञानिक को सब पतन की ओर जाता दिखता है ।
*जबकि प्रेमी नित्य उद्भव (प्राक्ट्योत्सव) देखता है*
प्राक्ट्य जीव के अधीन नही है सो उसकी सृष्टि संसृति ही रचती है ।
जबकि भगवदिय विज्ञान उद्भव भी देखता है ।
जानने पर स्थूलत्व की माँग होती है जैसा कि उछ्लते मेंढक को ना जानने पर उसे मृत करके ही जानना एक विज्ञान धरा पर कदम है । नाचती हुई तितली के भीतरी स्पंदनों को छूने के लिये उसे पकड कर सेन्सर लगाने होगें जिसमें वह उतने काल मूर्त हो यह माँग होगी ।
अर्थात् चेतन तत्व से प्रेम किया जा सकता है । जानने पर वह स्थिर या मूर्त या किसी कालखण्ड में हो यह माँग होगी । किसी कालखण्ड को जाना जा सकता है समय से परे नित्य को प्रेम किया जा सकता है । जीव स्वयं एक कालखण्ड है ।
इस बात को इसलिये कहा है कि जीव का विज्ञान या वैज्ञानिक संहार के इर्द-गिर्द तो है पर उद्भव से दूर हो है ।
भगवदीय कृपाशक्ति नित्य प्रभात में चेतना बिखेर जाती है और नित्य रात्रि में शीतल विश्राम की माँग । जबकि मनुष्य उसी परमाणु को छूकर विस्फोट ही रच पाता है । सो भगवदीय भागवत को ईश्वरीय उद्भव -स्थिति प्रणाली दिखनी चाहिये सो निवेदन किया कि प्रेमी का विज्ञान प्रेमास्पद के हृदय में भरा है ।
प्रभात में एक जिज्ञासा हुई उनसे कि आपका विज्ञान और मनुष्य के विज्ञान में क्या भेद है ?
उत्तर - उद्भव और स्थिति सहित संहार वह रचनाकार है जबकि प्राप्त स्थिति को संहार तक देखता ही बोध मानवीय विज्ञान ध्वनित है । प्रति उत्पाद मनुष्य ईश्वरीय करुणा शक्ति का अपभृंश ही रचता है अर्थात् प्रदूषण ही रचता है । जबकि वह नित्य नये सुगंधित जीवन भरते है और भरते रहेंगें ।
जैसा कि विज्ञान बताता है कि पानी भी ना रहेगा आदि ऐसी स्थिति में भी धरा-शक्ति आश्रित और प्रेमी के हित से रस प्रकट करती रहेगी । सोचिये वह राजा जो मिलने पर मछली का भक्षण ना करें उसे सेवित करें वह तब उपस्थित हो , जब भक्त-वैष्णव की दवाओं में भी अपभृंशित शव हो । उस मनु के लिये प्रलय भी उद्भव लायेगी । सो विवेचना है यह कि हम किसे अधिक निकट चाहते है मनुष्य की संसृत गति या रसिली नित्य नवेली मधुर अनुरागित विलास गति ।
*प्रेम नित्य नूतन सुगंधों से भरा है*
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