आप केवल प्रियतम् हो ।।। बस - तृषित
*आप केवल प्रियतम् हो ।।। बस*
हे प्राणेश प्रियतम ! क्यों माना भी जाए आपकी सत्ता और पद को , आपके ऐश्वर्य बोध के वैभव प्रकाश से सरस प्रेम में हित अभाव और बाधा अधिक ही है । आपकी सत्ता से आपकी प्राप्ति का दर्प (मान) मेरा जाग उठता है । और तब मेरा ही दुर्भाग्य , न ..... न मानना , मुझे आपकी ऐश्वर्यता-वैभवता-सत्ता आदि को । ये प्रेम में पीड़ा दायक है , मैं दीन और आप ईश्वर , हे मेरे प्रियतम .... मेरे प्रियतम ही आप ...। आपके माधुर्य से वंचित होने का पथ है , सत्ता बोध ...भले मेरा या आपका । गोपियों ने जैसे ही माना जगतपति का संग , कर्ता-धर्ता के रंग , तो हो गए आप ईश्वर । और हो गए अन्तर्ध्यान । ईश्वरता हिय में भी कहाँ स्पर्शित होती जैसे ही विभुता बोध संग द्वैत हुआ तो चले जाते हो । प्रियतम वत ही हिय भरित स्पर्श होते हो । प्रेममय यह हित रूपी व्यापक रसीला अद्वैत आपको मेरे भीतर से पल भर नही जाने देता । तत्वमसि केवलं यें दृष्टि अटल सत्य है परन्तु ईश्वर रूप में नही । ईश्वर मानकर प्रीति तो जीव का व्यापार है , दिव्य सुखों का हेतु साधन भर वह तो ...जैसे बिन्दु में सिन्धु होती एक लालसा । आप मेरे हो ...मेरे प्रियतम और सर्वत्र दिख रहे हो , अनुभूत् हो रहे तो दिखते रहो । छूटो न , मेरे प्रियतम । ....... तो , प्रेम में आपको जैसे ही जाना आपके ऐश्वर्य को कि कौन हो , वहीं रस -रास -प्रेमलीला सब छुट जाता है । मान , द्वेत , दम्भ आदि होंगे ही आप प्रभु हो और प्रभु मान कर ही रहा जाए । .... यहाँ आदर-सम्मान आदि तो होता है । परन्तु आत्मियता नही खिल पाती । सन्मुख होने के चिन्तन में दिल करता है हृदय से लगा लूं , भीतर भर लूं पर जैसे ही जाना आप कौन हो सर्वेश्वर , तो आंखें चरण छूने लायक भी ना रहती । आप मेरे हो । सदा मेरे हो । और आप ही हो सदा मेरे अंदर-बाहर ..... केवल भगवान होकर नही । मेरे प्राण-प्रियतम होकर । हमारे निजधन होकर संग हो । आपको ईश्वर माना तो आपकी प्राप्ति और प्राप्त प्रेम में अभिमान , दर्प होता ही है। आप सुलभ , सरल हो । परन्तु माया से अनुभुति दुर्लभ होती है । और यें ही आपकी दुर्लभता , आपकी प्राप्ति ..आपके प्रेम को पाकर उसे सेवार्थ पीने की अपेक्षा उस सहज प्रेमरस से हट दिव्य अनुभूति करना चाहती है कि मैंने श्रीहरि को पा लिया , उन्होंने मुझे अपना लिया । परम् सत्ता हो आप, तो आप श्री सर्वसत्ताधिकारी से सम्बन्ध में दम्भित होना , अहंकारित होना क्या आपको स्वभाविक नहीं लगता । और यहाँ किसी भाववृति को दोष दिया जाता है परन्तु आप ईश्वर होते ही क्यों हो ?
जगतपति जो होते ही नही ..... होते तो ज्ञात न होता तो कैसे प्रेमी भावुक .... कैसे अपने प्रेमास्पद से दूर होते । सर्व सुलभ के लिये नित्य ही केवल नित्यबिहारी ही होते , केवल बंशी बजाते मोहन , विलास भरित राधारमण ही ... तो कैसे किसी रमणी के चित् में परम् की प्राप्ति का भाव आ पाता । यें दर्प-अभिमान-दम्भ में मेरी अपनी तो दीनता ही है , अपने सम्बन्धी के महत्व -स्वरूप- वैभव - ऐश्वर्यत्व का ही तो अहंकार यहाँ प्रेमी में दिख गया है । प्रेमास्पद कौन है , कितनी दिव्यतम-दिव्य ऐश्वर्यता ...यें जान लेना भी घातक हो गया । केवल आप हमारे और हम आपके रहे इतना जान और मान लेना ही पूर्ण रस को नित्य बनाये रखता है ...मानुं तो सौंदर्यसार मधुर रस सुधाकर नित्य नटवरनागर श्री कुँजबिहारी ... आपके स्वरूप - स्वभावों को ही गाऊं और मानुं मेरे प्रियतम । हमारा प्रेम में मान करना भी आपका तो रसवर्धन ही करता है और इस हेतु संसार दम्भित कहे या अंहकारी वो भी मीठा ही लगता है क्योंकि कहीं न कहीं अपने प्रियतम् का रस वर्धन हो रहा है । परन्तु हमारा रसवर्धन जब है जब सत्ताधिकारी स्वरूप को भुला , आपको अपना मान लिया जाये । होंगे आप ईश्वर , होंगे आप प्रभु , होंगे आप संसार के पूजित ठाकुर । पर क्यों हो ?
आप क्या और क्यों हो ? इससे कोई सरोकार नही , मेरे प्रियतम। बस आप ही मेरे हो । अपने हो । कुछ हो तो केवल और केवल हृदय की सांसो से अधिक गहराई में बसे प्राण प्यारे निज प्रियतम । सुंदर सलोने प्रियतम् , बस । और कुछ नही । आपकी रसिली मधुरातीत -मधुरता के सिवाय किसी रूप और जानकारी से कोई सम्बन्ध नही । रसिकाचार्यों ने केवल माधुर्य रूप पर मन को लगा देना समझाया , सिखाया । परन्तु न जाने कहाँ से रह-रह कर आपका ऐश्वर्य प्रेम में बाधक हो ही जाता है । प्राणधन का दर्शन , प्रदर्शन जब होता है जब अपने प्रियतम् में ईश्वर दिखने लगे । प्रेम समत्व पर होता है .... कृपा कर साहचर्य में हो अर्थात् संग और समान हो तभी तो कुछ हुआ ही , करुणावत ... । ईश्वर और जीव का भाव तो आपकी श्रद्धा-पूजा तो कराता है परन्तु रस तो आपका अपना होने में ही है । ईश्वर मान की जाने वाली पूजा से अधिक रस कभी आपके , कभी मेरे रुठने मनाने में है। तुम बिन जिया जाएं कैसे , कैसे जिया जाए तुम बिन । "तृषित" । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी । 6 दिसम्बर 2015 ।
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