सो भी तृषित

मैं भी हूँ पिता
अब भी कहती नारियां अधिक
पाओ एक पूत देती कुआशीष अधिक
पुरुष कभी नहीँ कहते
लाओ कोई तुम सम भी
मात आदि आदि के चित् पोत्र लालसा पलती
पर , श्यामा है जीवन
कैसे तनिक विचारुं
बड़ी महर से संग भी है
अब भीतर ही सब पाता जाऊँ
नहीँ आस हो अस्तित्व तनिक और शेष
जाऊँ जब मिटे सब कलेश
तृषा सम्बोधन भीतर था वर्षो से
जब सन्मुख हुई वहीँ तृषा
तब गुरु सम अनुभुति हुई
तृषा से बना तब तृषित
फल से फूटे पुनः ही बीज
मेरी नहीँ अब हूँ उनकी सृष्टि
तृषा की वस्तु हूँ सो भी तृषित

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