प्रियतम की संगिनी की बाधाएं क्या होती है ?

प्रियतम की संगिनी की बाधाएं क्या होती है ?

मन कभी तादात्म्य नहीँ करने देता , सुबह से रात तक जहाँ जाता है वहाँ से लौटता ही नहीँ , मकड़ी सा जाल ही बना डालता है ।
गहराई में मन में कई कुंठाएँ , कई चाह , कई कामना है , सम्भव है हम उन्हें नजरअंदाज कर देते है , परन्तु सब निकाल फेंकना ही है । विश्लेषण करने की भी कोई आवश्यकता नहीँ , मन लौटा लाने में सब और से लौटना होगा जो देह मिली है , इसमें समाना होगा , वरन् हम सर्वत्र होते है , मान लें मैं कार से कही जा रहा हूँ तो एक तो जहाँ से आया वहाँ कुछ हूँ , एक जहाँ जाना है वहाँ भी और कार में भी साथ ही बाहर के दृश्य को भी जोड़ रहा हूँ , अतः सारी ऊर्जा पचासों जगह बिखरी है । इन्हें इकठ्ठा करने हेतु भीतर भगवत् स्वरूप उकेरे , अथवा वह भी ना कर केवल समस्त और से मौन हो जाये , गहनता से अपने प्रभु के भाव में उतर जाएं कोई बाहरी सहयोग नहीँ हो । केवल कुछ हो तो नाम । अपनी ही आत्मा से कहा हुआ भीतर ही अपने भगवान का नाम स्वयं सुने । गहरा आत्मा कहे और गहरा सुने । यूँ होगा मन निशांत और भी विकल्प है , परन्तु समेटने में केवल एक गहरी शान्ति चाहिए । मन के सभी संस्कार , कार्य , संसार हेतु समस्त तन और मन की क्रियाओं को उसी प्रकार देखना है जैसे होने वाली वर्षा को या सूर्य उदय को हम देखते है । वर्षा देख हम नहीँ सोचते की हम बरस रहे है अथवा हम इस में कही कार्य कर रहे है , या हम ऐसा भी नहीँ सोचते , मैं सूर्य रूप में उदय हो रही हूँ या मेरी कोई शक्ति सूर्योदय में लगी है । स्पष्ट जानते है कि यह सब किसी और की सत्ता से हो रहा है , मैं तो केवल दर्शक हूँ , देख भर रहा हूँ । और देख ने की रूचि भी कब तक जब तक अन्तः दृष्टि उदय ना हो । ऐसे जीवन के समस्त व्यवहार को देखना है । अन्तः दृष्टि के उदय होने का साधन है , देखे हुए से सहयोग न रखना । यें कठिन है , अपनी ही हरकतों क्रियाओं को देखना और वहाँ सहयोग ना करना , जैसे वर्षा के रुकने में हम सहयोग नहीँ करते या आने में नहीँ कर सकते , वैसे ही अपनी क्रिया में , व्यवहार में सहयोग ना हो , केवल दर्शक ।  ..... सहयोग रखने का सामर्थ्य तब ही आता है , जब सच्चा पिपासु (साधक) सहजता से अपने को भगवान को समर्पित कर देता है । और हाँ समर्पित भाव है , अभ्यास नहीँ । एक बार हुआ वह सदा के लिए हो गया । पुनः ऐसा होना अपने ही पूर्व भाव को अपने हाथों कुल्हाड़ी मारना ही है ।
संकल्प (कामनाएँ) ना पूरे हो , या पूरे हो अथवा संकल्पों से निवृत्ति ही हो सब दृश्य की अवस्था है । अपने ऊपर उनका कोई प्रभाव ना हो । अर्थात् संकल्पों की अपूर्ति  पर दुःख ना हो , पूर्ति पर सुख ना हो और निवृत्ति की शान्ति का भी उपभोग ना हो । मान लें हमें गायक बनना हो , पर अब मन को हटा लिया अपने संकल्प से निवृत्त हुए और अब भगवान की सेवा में है , अथवा शांत चित् है तो इस शान्ति का भी उपभोग नहीँ करना , बल्कि अपने प्यारे मनहर की लीला जानकार उनमें अपने प्यारे को ही देखना है और प्रियतम् की वस्तु हो , उनकी ही हो प्रियतम् को रस प्रदान करना है  ।
अब यहाँ सवाल आता है , हमारे पास उनके हेतु अब रस रहा कहाँ जब सब कुछ दृश्य मान लिया । प्रेमी के जीवन में देना ही देना है और कुछ नहीँ । प्रेमास्पद (हमारे प्रभु जी)अपने ऐश्वर्य और माधुर्य से प्रेमी को रस प्रदान करने के योग्य स्वतः बना लेते है । यहाँ उदाहरण दूँ मान लें आप उनके हुए , आपको काव्य नहीँ आता परन्तु उनको तो सब आता है ना वह ही देंगे वह शक्ति की रचना हो और उस रचना में हमारी प्रीत से रस उन्हें मिलता रहेगा । पर वह ऐसी योग्यता जब ही प्रदान करते है जब प्रेमी स्वयं में अपना कुछ नहीँ पाता । तब ही ऐश्वर्य या माधुर्य जैसा रस वह आपसे चाहे आपमें स्वतः उन हेतु उमड़ने लगता है । यहाँ पूर्व में ही स्वीकार्य है , मेरा कुछ नहीँ ।अतः नवीन वस्तु तो सर्वथा मेरी नहीँ हो सकती , वह प्रियतम् हेतु ही है । अन्तः प्रेम रस में रहने में सदा मिलन है , हर दृश्य को उन संग निहारना ही है । मान लीजिए एक फ़िल्म अपना ही जीवन और दर्शक हम और प्रियतम बस । शरीरों से समीप होने का कोई अर्थ ही नहीँ , वह देह से सदा ऊपर है तब उनके स्तर की निम्नता का पुनः पुनः विचार क्यों ?
प्रेमी को स्थितियों से कहीँ भय भी नहीँ , न दुःख , न सुख । सुख की लालसा में ही सारे रोग है , निर्बलता है सुख की चाहना का त्याग ही आनन्द है , हमारे मन हर प्रियतम भयहरण करने वाले है , आनन्द रूप है तब सुख का भोग और भय का कोई स्थान ही कहाँ ? नित्य प्रियतम संगिनी होने का यह सब सरल पथ ही तो है । -- सत्यजीत तृषित ।।।

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