मेरी बाईं साँ
देखने भर में वह एक साधारण सी भी नहीँ लगती , परन्तु सजीव चमत्कार को मान लेने का साहस कौन करें ,कलयुग में यह सनातन सी आभा , सम्भवतः अप्सराएं भी गौण हो । गुण की बात ही क्या करना यह तो निर्गुणात्म अवस्था है, जब वह चलती है तो पग स्पंदन और भीतर के सुमिरन से प्रकृति कृतार्थ हो उठती है , वृक्ष लता अपने थिर होने को कृपा स्वीकार कर लेते है क्योंकि वह भी मानव की तरह बहु विचारत्मक होते , थिर चित् ना होते तो यह दिव्य आभा और सौरभ जो सम्भवतः वैकुण्ठ के वातावरण को भी लजा जाये । और यह गौ , किस तरह मूक अनुसरण कर रही है । इस दिव्यतम आभा में नित्य शीतलता है , समुन्द्र समीप नहीँ दीखता पर पवन जैसे कुछ वैसी ही , और हल्की हल्की फुहार , बिलकुल बारीक बौछार , बदरिया तो जैसे शिष्य धर्म निभा छत्र बन गई हो । श्री कृष्ण की सौरभ में भी ऐसी बात तो अनुभूत् नहीँ ..... !!इतना विशेष रस , कई गुणा अधिक उन्माद , अहा ...... आप कौन है , सम्भव हुआ तो प्रकट हो ही जाएगा । और वह भगवान शिव संग आपका संवाद कभी विस्मृत हुआ तो भी हल्की झाँकि बनी ही रहे , यही अनुरोध है .... !!! पूर्ण सत् चित् आनन्द , स्थूलता नहीँ , होती तो सम्भव ही ना था वह इस तरह ....... !!!!!!!
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