कन्टक पुष्प, तृषित

कन्टक - पुष्प

कंटक वन सा जीवन

मधुशाला की मधुता

कहाँ से लाता ...

पंकिल  वह  विष्टा अणु

दुर्गंन्ध से नीरज सुरभता

कहाँ से लाता ...

तिमिर गहन अंतःकरण का

शुक्ल रात्रि की प्रतिपदा भीतर

कहाँ से लाता ...

अघासुर इस जीवन अजगर का प्रमाद

निर्मल पद परस हृदय पर

कहाँ से लाता ...

विश्व जलाता मैं नेत्रों से

अहम जलाने समिधा तृषित

कहाँ से लाता ...

तेरे उपवन में वनमाली तेरा कंटक

पुष्प सुमन अर्पण की सरसता

कहाँ से लाता ...

तेरा हूँ
सो निश्चित पुष्प हूँ ... कन्टक नहीँ

तेरा हूँ
सो निश्चित मकरन्द पराग हूँ ... पंकिल भी नहीँ

तेरा हूँ
सो निश्चित सुरभित हूँ ...
अहंता की भीष्ण कन्दरा नहीँ ...

कुरूप कर्कश विषाणु भी हूँ
क्योंकि
तेरा होकर तेरा नहीँ ...

जो तेरा हूँ सो अमृत हूँ
जो मेरा हूँ सो हलाहल की दाह हूँ ...

मै ही पुष्प हूँ तुझसे
मैं ही कंटक हूँ मुझसे

मेरा जीवन कहता है
क्या तेरा हूँ
क्या मेरा हूँ
--- तृषित

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