सर्व मेव स्वरूप से निज स्वरूप तक की यात्रा , तृषित्त
जगत भगवान का विलास अनुभूत हो ।
सब रूप श्री प्रभु ही है । वो जो भी बन कर आवे आप उन्हें पहचान जावें । पर हृदय उनके इस खेल की अपेक्षा अर्थात भेष धर कर आने की अपेक्षा उनके निज स्वरूप में आने को अकुलाता रहें । सर्व रूप वही , यही बात तृप्त करती हो और वास्तविक रूप में उनके आने की लालसा तब ना हो तो यह उनका व्यापक बोध प्राप्त हुआ । परन्तु श्रीप्रभु को सर्व रूप पहचानते पहचानते वह स्वयं भेष धरना कम कर देते है , और ऐसे साधक के पास आवश्यक मात्र न्यून होता जगत शेष होता है । सर्व रूप वहीँ है यह स्वीकार करते ही वह वास्तविक ही मिलने लगते है । जगत जब तक ही है जब तक उसे जगत माना जावे । वरन जगत रूप प्रभु ही अभिनय कर रहे अतः वही ही है मानते ही वहीँ ही होते है । बाह्य विलास स्वीकार कर उससे अतृप्ति और नित्य स्वरूप विलास लालसा यह आसान नही ।
साधक कही कही भगवत अनुभूति कर ले तो उन्हें लगता ही कि वह तो भगवत प्राप्त अवस्था में ही है । जबकि जीवन का प्रति निमिष उनके नित्य स्वरूप का सँग कर सकता है , अभाव है तो लालसा का । प्यास का । तृषित्त
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