सहज त्याग की आवश्यकता और व्याकुलता

मेरे सँग से कहीं प्रेम मय लाभ नहीँ होता तो वहाँ मेरे द्वारा त्याग से शीघ्र लाभ होता है ।
मानव की विशेषता है कि वह शत्रु द्वारा भी त्याग सहन नही करता । स्वीकार्य किये जाने पर व्याकुलता धीमी हो जाती है । और त्याग किये जाने पर व्याकुलता तीव्र होती है । यह वैसे ही है जैसे दुरी बढ़ने पर वाणी तीव्र हो । तीव्रता की वृद्धि निकट में कम होती है । अतः यह त्याग कल्याण का बाधक नहीँ होता अपितु कल्याणमय ही होता है ।
एक विशेष रहस्य इस त्याग से पूर्व उनमें मुझे भगवत भाव हो जाता है जिससे मुझमें तिरस्कार की अपेक्षा प्रियतम से दूरी की भावना रहने लगती है । अर्थात जीवन में त्यागी वस्तु-व्यक्ति-स्थिति असत नहीँ सत जान त्यागने पर ही मेरा विकास है । यह सब स्वभाविक होता है ।
सँग और असंग दोनों और सत का प्रकट होना ही वास्तविक सत्संग है । त्याग की परिभाषा भगवती भक्ति महारानी सिया जु द्वारा प्रकट है , उनका त्याग राम का त्याग है । ऐसे ही श्रीराम का त्याग प्राणरूपा श्रीभक्ति महारानी प्राणवल्लभा का त्याग है ।
कुल मिलाकर यह रहस्य है एक ।
समझ में यही आता है कि वैमनस्यता से त्याग हुआ है मेरे द्वारा परन्तु पथिक को व्याकुलता मिले अतः ही वे मेरे निकट है । व्याकुलता की वृद्धि अनिवार्य है मै नहीँ अतः मैं व्याकुलता में बाधक हूँ तो लीला संभावित ही है । तृषित

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