सविशेष की लालसा और सहज भगवत नित्य सुख , तृषित

सविशेष की लालसा और सहज भगवत नित्य सुख

संसार सदा विशेषता खोजता ॥ विशेषता न है पता चलते ही जो सहज आकर्षण उदित हुआ था वह निःशेष हो जाता स्वतः ही ॥ परंतु प्रेम में जहाँ भी कोई कारण है प्रेम का तो वास्तव में प्रेम है ही नहीं ॥ तो विशेषता खोजने वाले नेत्र और मन शुद्ध प्रेम को कहाँ अनुभव कर रहे अभी ॥ "साधारण "यह भाव आते ही समस्त श्रद्धा तिरोहित हो जाती ॥ "साधारण" यह पता चलने पर भी भाव परिवर्तन न हो तो मानिये प्रेम का उदय हो चुका है ॥ जो विशेषता खोजे तो वह जीव मात्र से प्रेम करेगा ही कैसे ॥ कल तक जिसके प्रति श्रद्धा उमण रही थी आज बेकार हो गया ॥ विशेष से ही लगाव क्यों ...क्योंकि वहाँ कुछ प्राप्ति की संभावना है साधारण दे ही क्या सकता है ॥ तो छोडकर साधारण को ढूंढे कुछ विशेष रे मना .......॥

श्री प्रियाप्रियतम् में सम्पूर्ण विशेषताएं । परन्तु हममे सम्पूर्ण नग्नता होने पर भी उनका प्रेम सहज है । उन्हें हमसे कोई विशेष प्राप्ति नहीँ है । पर हमे उनके नाम स्मरण से ही विशेष सुख मिलता है ।
रस और भाव की समस्त अवधि तो वे स्वयं है , तो हम उन्हें दे क्या सकते केवल अभाव के अतिरिक्त । परन्तु जीव अभाव से भागता है , और प्रभु अभाव के पीछे भागते है , अर्थात दीन के पीछे । दीन उनसे आगे दौड़ता है । कही सविशेष सम्पूर्ण रस स्वरूप श्री प्रभु मुझ दीन का स्पर्श ना कर लें । प्रभुता की विपरीत अवस्था है दैन्य । जीव प्रभुता की और भागेगा तो अहंकार ही जुटाएगा । क्योंकि दूसरे प्रभु होंगे कैसे ? एक काल में एक ही राष्ट्रपति होते ना ।  पद प्राप्ति की दौड़ केवल अहंकार का पोषण है ।
स्वयं की मलिनता का उद्घाटन होते ही श्री प्रभु की निर्मलता प्रकट हो जाती है । अपने में निर्मलता दिखने पर वास्तविक निर्मलत्व का दर्शन नहीँ होता ।
और प्रभु के सौंदर्य , निर्मलत्व , माधुर्य की कोई परिधि नहीँ ... साधक जितना व्याकुल चित्त से नामरस में डूबेगा उतना ही दृष्टि में प्रकाश होगा और श्रीप्रभु का रूप सौंदर्य बढ़ता ही नजर आएगा । परन्तु इस सौंदर्य - माधुर्य का कही अवकाश नहीँ । अवकाश पिपासा का हो जाता है ।
हमने अपने-अपने दायरे बना लिए है । और वह स्वतंत्र मण्डल में सर्वरूप ही है ।
परिधि शुन्य नेत्र ही व्यापकता का दर्शन कर सकती है । जीव बिना रसिक सन्त कृपा के निज मति की परिधि से नही छूट पाता । और अपनी मति सती कर , सन्त विवेक से चलने वाले को उनकी दृष्टि से सहज नित्य विकसित रस की प्राप्तियां होती है ।
विचार कीजिये श्री प्रभु को ऐसा कौनसा सुख है जो केवल हम दे सकते है , जो उनमें नहीँ । ऐसा कुछ है ही नही जो उनमे नित्य ना हो । परन्तु उनके नित्य उस सुख को वह हम से अभिन्न पुकार लेते है और यही उनकी भावना हमें उनसे उनकी प्रीति वत नित्य अभिन्न रखती है ।
जीव की प्रीति में स्व सुख है । श्री प्रभु की प्रीति में जीव का सुख ।
श्रीहरिदास । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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