आर्त में भी आनन्द (रहस्य) , तृषित्त

आर्त में भी आनन्द
(रहस्य)

श्री प्रभु की पीर का उदय बिन प्रेम होता नहीँ । पीर अर्थात आर्त कष्ट । अब आप कहेंगे उन्हें कोई कष्ट नहीँ । ऐसा नहीँ ।
हृदय की मलिनता उनका कष्ट है । सन्तति में दुर्भावना होने पर किसी भी मातृ शक्ति को पीड़ा होती ही ।
उन्हें कष्ट है हृदय की मलिनता । उनका सुख है हृदय की निर्मलता । परन्तु हम में सब का ही मन निर्मल नहीँ हो पाता है । यही भगवत आर्त है ।
शरणागत निर्मल हृदय की तो कठोर वाणी भी प्रभु को सुख देती है ।
वैसे श्री प्रभु अपना आर्त किसी गहरे प्रेमी से ही प्रकट करते । परन्तु वास्तव में मूल में उनके रस- आनन्द ऐसा परिपूर्ण है कि श्री प्रभु का आर्त उनसे सुन कर उठी पीड़ा से आर्त निवृत्ति तक की पगडण्डी आंतरिक रूप साधक में एक भगवदीय आनन्द का ही पोषण करती ।
यहीँ हमारी हार है ... वह नित्य सुखी , नित्य तृप्त , नित्य आनन्द , नित्य रस , नित्य भावित , नित्य परस्पर प्रिया सँग मिलित है । अतः मूल में उनमें आर्त जो है वह केवल प्रेमी का रस वर्धन मात्र है । जिससे उसके भीतर भगवत आरती का सुख हो । श्रीप्रियतम् के सन्ताप निवृत्ति का सुख । जबकि कोई सन्ताप है नही । परन्तु श्री प्रभु का आर्त केवल पिपासु पथिक को पीड़ा ही दे , उस आर्त से उसके हृदय में कोई निमिष मात्र रस ना हो तब वह बड़ा भावुक सच्चा प्रेमी है । क्योंकि उसके हृदय में न्यूनतम श्री प्रियतम का भगवत स्वरूप चिन्तन है ही नही । वहाँ प्राणो की पीड़ा से केवल दाह है ... बड़ा आंतरिक है यह दाह ।
बडी विचित्र लीला है इनकी कि इनका आर्त (कष्ट) चिन्तन भी रस वर्धक है । उसमे एक आत्मीय सुख है । आरती में भगवान का आर्त हरने की भावना मात्र से साधक में आनन्द बढ़ने लगता है जबकि आर्त है यह बात तो केवल केवल पीड़ा ही देंनी चाहिये ।
स्पष्ट रूप में तो आर्त उद्घाटित कर , और गुप्त विधि से आनन्द का ही विकास कर वह अपनी प्रीति तो निभा जाते है । परन्तु वास्तविक प्रीति में वास्तविकता बोध होने पर भी आर्त का उद्घाटन केवल पीड़ा ही क्यों नहीँ होता ... । अपितु अपनी ही वास्तविक पीड़ा की निवृत्ति में आनन्द रूप वहीँ तो प्रकट होते है । कुल मिलाकर दोनों तरफ आर्त देता आनन्द है ... आनन्द उनका निज स्वभाव जो है ।
आर्त का उद्घाटन होने पर उसकी निवृत्ति ना करना तो साधक का प्रेमहीन होना ही सिद्ध करेगा । और जिस आर्त के निवारण में सुख हो वहाँ भी कौनसा वास्तविक प्रेम है । वास्तव में वह नित्यानन्द है अतः वास्तविक चैतन्यता केवल उनकी निज प्रीत को अश्रु मात्र से छू सकती है । क्षमा । कुछ अन्यथा कह दिया हो सम्भवतः । तृषित्त ।
अब साधक अद्वेत बुद्धि से तर्क कर कहे आर्त है ही नहीँ , तब ऐसे विज्ञानियों को सम्पूर्ण धर्मो में भगवत आर्त निवृत्ति रूप उपासना बदल देंनी चाहिये । मूल तो आनन्द है , हम कब मना कर रहे । पर जिस आर्त का स्वयं प्रभु उद्घाटन करते हो वह सत्य में उनकी निज पीड़ा है ही , और वह है अंतःकरण की अशुद्धि । मन की मलिनता । शयमसुन्दर के श्री विग्रह की आर्त निवृत्ति से अपनी मलिनता छूट रही तो आर्त को भी वह खेल बना कर आनन्द पिला ही रहें । मलिनता की शुद्धि के भृम में जीव क्या करना पता है ना ... छुआ - छूत । यहाँ का पवित्र मलिन को पास भटकने नही देता । और वह मलिन के मलिनत्व को निज सेवा से कैसे हर रहें ... किस का अभिषेक हो रहा वस्तुतः ... जीव के हृदय का ही तो ...   ... पुनः क्षमा । तृषित्त

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