रसिक रीति । तृषित

*रसिक रीति*

रसिक रीति की उपासना का आश्रय लेते ही । वाणी का आश्रय लेते ही । नित्य बिहार मदिरा नव नव वर्षण सँग भीतर भरने लगती है ।
यह पथ एकान्तिक होकर रसीले समाज को अनुभूत करने का है ।
श्रीवृन्दावन आश्रय से पूर्व भी भावानुभव हेतू वाणियोँ को ही प्राणाधार धारण करना चाहिये ।
बहुत वाणी सँग ना होतो कोई एक पद जीवन भर धारण रख सकते है ।
वाणी की छाया से पृथक् यह रस अनुभव होवें भी तो भी वाणी आश्रय को वैसे ही तलाशना चाहिये जैसे शिशु केवल मातृ गोद में विश्राम पाता है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

यही तो पथिक होने का प्रमाण है कि वह अनुसरण स्वीकार करें । पथ गृहण करने से पूर्व भी भगवत दर्शन या भगवत-सँग हो सकता है ...परन्तु रसिक रीति पथ भीतर जाती हुई सेवात्मक रीतियों को प्रकट करता है ।

अगर किन्हीं को ऐसा प्रतित होवें कि उन्हे तो सब वस्तु रसिक आश्रय से पूर्व ही मिल गई है तो निवेदन है कि श्रीप्यारे ने अब भी अपनी निजता को छिपा रखा है आपसे जिसका उद्घाटन रसिक आश्रय से प्रकट होगा । यहाँ रसिक तात्पर्य वह है जो स्वयं आचार्य परम्पराओं में भीगे हुये भीतर की भावावली पिरो रहे हो । यहाँ आचार्य चरण के प्रति निष्ठा न होना ही श्रीप्रियतम की निजता का अनुभव ना होना है । आचार्य परम्परा में भीग कर की गई प्राकृत लोक की चर्चा भी भीतर को कभी पूरा प्राकृत नहीं होने देती उसकी एक रसिली स्थिति नित्य रहती ही है ।
श्रीराघव सँग अगर श्रीलक्ष्मण जू को अनदेखा किया जावें तब श्रीराघव जू का सम्पूर्ण दर्शन होगा ही नहीं । पथ आचार्य तो कृपा से प्रकट नयन ही है हमारे हेतू । केवल उन्हें भाव सन्तोष हेतू ही अवतरण नही कहा गया है ...जैसे श्री स्वामी जू श्रीसखी जू ...अब सखी जू का नाम लेना हो तो श्रीललिता जू का अवतरण है तब यह तो अपार कृपा ही प्रकट होकर निज प्रेमामृत धारा दे रही है । और उनके भाव नयनों में तो केवल नित्य सुख का बिहार श्रृंगार ही प्रफुल्ल विपुल हो रहा है ।
रीति आश्रय से पूर्व चिन्तन या करुणा से श्रीप्रभू का व्यक्तिगत सँग भी मिल जावें तो रीति इसे और भी सघन करती है । रसिक रीति से प्रकट रस में नित्य ही सखियों का विपुल समूह और विपुल सेवाओं का ...रागों सँग ...नृत्य मय विलास प्रकट रहता है । वह रीतिगत विलास सघन होता जाता है जो कि रीति आश्रय से पूर्व निज तक सीमित है । श्रीहरि अथवा किशोरी से जीववत मिलन और दूसरी ओर उनके अनुग्रह से उनके नित्य उत्सवों का आमंत्रण जिसमें उपस्थिति हेतू समस्त श्रृंगार आदि भी आचार्य रीति से सिद्ध होते हुये अर्थात् नित्य प्रकट उत्सवों में उनका होकर भीतर प्रवेश होना यह रसिक रीति है ।
रीति से पूर्व और रीति के आश्रयोपरान्त जो विकास मैनें स्वयं पाया वह कृपा की सिद्धि है । किसी समय मुझे भी लगता था कि अब कोई स्थिति बाहर मिल नही सकेगी परन्तु रसिक रीति का आश्रय ना मिलता तो भलें जगत् और अहंकार यहाँ स्वयं को भावसिद्ध मान भी लेता परन्तु सेवा विलासों की रीति की एक पद्धति है जिसका आश्रय ना लें तो सेवा श्रृंगार जैसा है ...वैसा स्फुरित हो ही ना सकता कभी । अगर निज सेवा रीतियों को प्रकट करने की आवश्यकता न होती तब क्यों निज सखियाँ । निज मंजरियाँ यहाँ कलिकाल में अवतरण लेकर वह पथ प्रशस्त करती । इस कलिकाल से तो सिद्ध स्थिति भागना चाहती और इसी कलिकाल में निजतम सेवा अवतरण होरहे है । श्रीचैतन्य महाप्रभु ...श्रीरूप मंजरी ...श्रीस्वामी (ललिताजू)जू .... श्रीहितहरिवंश जू (हित सजनी)का सँग अन्य सतयुग आदि को भी सुलभ ना है ।
उत्तम है कि स्वयं को अवतार ना मानते हुये हम रसिक रीतियों का अनुसरण करें और जो रसिक आचार्य अनुसरण में प्राणों तक भरें हो उनका अनुग्रह स्वीकार कर नित्य वर्षणी कृपा को अवसर देने की कृपा करें । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

रसिक रीति अवश्य स्वीकार करें ।

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