संवाद (बातें) - तृषित

*संवाद*  (बातें)

हैरान ही नहीं हूं ...हैरत में कैद हूँ
आश्चर्य ...सघन सघन उलसता आश्चर्य ...और और बरसती बिखरती नई और ...और नई अदा । अदा ही नही हवाओं में भरती और सघन ...सघन और सघन रूपमाधुरियाँ ।  
हैरानियत (कौतुक) भरी यह दशा क्या मेरी अपनी इच्छा से है सखी... ना री यह तो रसिली सजाओं की मीठी मार से उठती ...आह भर है री । इतना तो ना चाहा री कि इतनी सुरंग मधुरता में डूबे और डूबे बस ..फिर फिर केवल डूबे ही रहना हो री ...आँखों में भरती यह मीठी हदें तो सजा हो रही है ...रसिली रँगीली और हैरां होकर मांगती मेरी निर्दोष आँखें यह मधुशाला की कोमल नयनों फिसलन से झरती हिय पर उथल जाती हल्की सी चोट री ।
मैं तो बस यहाँ हैरां भर हूँ री । रसिली बरसात आँखों पर तो वह ही हो रही न ...
मेरे शब्द तो मधुर रँग रूपमाधुरी से बाहर आ ही नहीं सकते है न री ।  रोम रोम में मेरे वही रँग होकर होंठों से अल्फाज़ों में भरी हुई सी । मेरे ख्यालों की आवाजों को भी कोई गीले रँग छुते होतो वह उससे ही तो भीगकर आते है ...मेरी रँगरेज़ ही वही है न री ।
...आह ...यहाँ तो ख्यालों (स्वप्न) और एहसासों (भावनाओं)  को भी कोई मीठी साँस से ज़िन्दगी मिल रही है तो वह भी तो वही भर रही है न री । यहाँ दिल (हिय) पर खिलता हर फूल उसी की मौज से खिल कर उसी आँचल सँग लहरा रहा है न ।
मेरी आँखों की तलब हो या दिल की नींद वही तो सब हो रही है न । तुम कहती हो कि कुछ छूता है मधुर सा तुम्हें ...वहीं सजनी झूमती होगी न भीतर कही न कही एहसासों को सहलाती हुई सी ।
जैसे जैसे वह मुझमें ही कहीं नाच रही वैसे वैसे झनक-खनक चमकती भीगी रँग बिखरी छुअन से सितारों भरा आसमां बिछाती ज़मीं (धरा) मिल रही ।
...अहा उसकी वह अन्दर और अन्दर मुझमें खोई सी सुहानी-रूहानी दुनियाँ ...जहाँ मुझमें ही मुझसे मुझे चुरा कर जहाँ वह लें जा रही हो ना जाने किन चाँद-तारों के पार।  (निकुँज)
   ...बात । कौनसी बात सखी बात-बात होती मुझसे होगी झलकती पर इनमें चमकती-झलकती प्रीति (मुहब्बत) वहीं ही है न ... हर बात में बहती प्यार होकर ...उड़ती-झूमती सुगन्ध से भरी प्यार होकर जो छू जाती कही तुम्हें वह वहीं तो है न । सच तो है न कि ...मेरी आँखों में भरी अदाओं में हैरां भी वहीं मचलती है न ...  ...
यह तेरी आँखों को छूता श्रृंगार फूल मेरा हो सकता है पर ...पर इन फूलों में भरी कोमल महकती ज़िन्दगी ...मेरे फूलों की फूल ...श्रृंगार की श्रृंगार ...वहीं तो ...
एक प्यार के बाग़ में एक प्यार के खेल को खेलती ...वही वहीं रँग हुलसनी झूमती दो रंगो में । वहीं रँग है यहाँ कि वहाँ ...दो रंगों में रँगी हुई ज़िन्दगी (विलास)  ...वहीं ही वहीं बस उसी के रँग और वहीं .
..उसी के दिल के ख्यालों-ख्वाबों में ... हूं  कहीं न कहीं । (हित)
प्रेम में रँग देने वाली वह ही ...रँग रही यहाँ दो फूलों की रँगीली छबि को एक तस्वीर में हमारी आँखों में ।
हाँ मैं एक ...रँगीन तृषित रस-रँग के सुखों की तलाश में रंगों में भीगा और भीगा सा ...और और रँग जाने को ..फिर-फिर भीग जाने को और और रँगीन वह घूँघट थामे रँगीन कंगन बजाती सी झुकी आँखों सँग और मुस्कुराहट छिपाती सी ...जैसे हया (लज्जा) का श्रृंगार गहरा ..कितना और ...ना जाने कितना गहरा रहा हो और और उलस-हुलस रही हो यहाँ और रँगों की तृषा... ....
तृषित ।  जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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