निभृत नित्य विलास - तृषित

*निभृत नित्य विलास*

एकान्त ...और एकान्त में विलास और विलास में विश्राम और वह विश्राम अनन्य रूप से नित्य सँग हो । तब निभृत रस है ।
विलास में सदा विश्राम है और विश्राम ही विलास का है अर्थात् अव्यक्त स्थिति ...सघन हुलासों में हुलसता वह जो समेटा जा रहा हो । एकान्तिक सिमटन श्रीयुगल की जो नित्य है ...भले अनन्त परिकरी वृन्द हो सँग तब भी कुछ है भीतर ही भीतर ।
क्या उनके उस एकान्त को छुआ जाता है ...जिस भाव को कोई भी छू लें वह निभृत नही होता । सब उछाल कर भीतर कुछ अप्रकट सा और उसी अप्रकट की लालसा । एक और जगत में अभिव्यक्ति है वहाँ उसमें अनुभव से पूर्व अभिनय है । एक और सघन अनुभव को छिपाने का सघन अनुभव हुलस रहा है ...हृदय की बातों को भीतर ही भीतर भरा जा रहा है उन्हें गाया भी जावें तो कोई समझने वाला भी न होगा यह दो प्रेमियों के भीतर की हुलसन है ।
जो सिमट रही है हल्के हल्के ।
आमतौर पर जीव रिक्त ही है क्योंकि वह सम्पूर्ण अभिव्यक्त है ...कुछ निजता उसकी अपनी रहती ही नही । अपनी हर क्षमता से हम सम्पूर्ण प्रयास कर निचोड लेना चाहते है ...भोग ।
नींबू की भले दो बूंद चाहिये हो परन्तु जीव कभी उसे भरा छोड़ता नही न । ऐसा ही वह जीवन के भीतर रस सँग भी कर रहा होता है ।
प्रेम में अव्यक्त रस का श्रृंगार नित्य है अर्थात् कहते हुये ना कहने पर घूँघट । संकोच अथवा लज्जा अपितु मान भी प्रतित हो सकती है वह निज विलास स्थिति ।
निभृत रस नित्य है प्रेम में । और वह और सघन रहती है अगर उस निभृत रस का ही श्रृंगार नित्य होवें उसे श्रृंगार पर श्रृंगार दिया जावें ।
प्रेमी के प्राणों में कहीं कोई भेद ना रह्वे है । वह दो दिखते भर है साँसों में भी अभिन्नता होती है अर्थात् जो वायू रव प्रेमास्पद के हृदय से बह रहा हो उसे ही भीतर साँसों में भरा जाता है परन्तु आती जाती इन साँसों में जो उलझन है वह ही निभृत सुख होकर सघन होती जाती है जो प्राणत: एक हो ...रस-रँग-भाव-रूप में साम्यता सघन हो रही हो ..कोई भेद ना हो ...भीतर वातावरण में  सुगन्ध युगल हो और उस उलझी सुगन्ध में अपने प्रेमास्पद की तृषा भीतर उतर रही हो । यह अकथनीय मिलन है परन्तु यह कतई काम नही है । मान लें कि गुलाब और मोगरे की सुगन्ध को मिला कर वायू में भर दिया जावें अब गुलाब को कहा जावें कि मोगरे की सुगन्ध आ रही तम्हें तो उसे वही ही आ रही होगी । और मोगरा गुलाब की ही सुगन्ध से रस लेगा क्योंकि अपनी सुगन्ध तो उसकी सेवा है । इन सुगन्धों की सघन उलझनों को रव-रव सुलझा कर भीतर ही भीतर भरना । श्रीयुगल का एकत्र रस विलास है जिसमें वह परस्पर रंगों में रँग जाना चाहते है । उनके जिस भाव की कोई सेवा ना की जा सकें क्योंकि कही न कही प्रेम सघन अपने प्रेमास्पद में ही जीवन है तब वह अप्रकट स्थिति निभृत है । सम्पूर्ण प्रिया तो प्रेमास्पद हृदय में ही होती है और सम्पूर्ण प्रियतम भी प्रिया में । तब सम्पूर्ण प्रिया की सेवा सम्पूर्ण युगल की सेवा की तो जा सकती है परन्तु सम्पूर्ण श्रीप्रिया जो की प्रेमास्पद के प्राणों को भीतर अपने हृदय में नित्य सजा रही उस सघन विलास का जिसमें परस्पर हृदय में नित्य विश्राम है और परस्पर प्राणों के विश्राम में उनके हियविश्राम सेवा में अपनी अप्रकट स्थिति कभी प्रकट नही हो सकती । क्योंकि भीतर प्रेमास्पद नित्य विश्राम में है और नित्य उनकी सेवा में वह भीतर है ही ...सो सम्पूर्ण अभिव्यक्ति होती ही नही । अव्यक्त रस का श्रृंगार नित्य रहता है श्रीयुगल प्राणों से अभिन्न सेवाएं इस अप्रकट रस की भी सेवा कर सकते है इस सेवा हेतू सेवा को एक सँग दोनों हृदयों की कुँज को अपनी हिय कुँज में भरना होता है । यह केवल प्रकट सखी का सुख है और साधनाओं की यहाँ पहुंच ना रह्वे है । एक गीत दे रहे है ...
अप्रकट गहनता कितना सघन बोलती है क्योंकि हल्के हल्के हृदय से हृदय मे यानि दिल ही दिल में जो बोलती है । यह गीत आप सुने भी ।
यहाँ नीन्द को परस्पर दिया जा रहा है और भीतर के ख्वाबों को जो कि निद्रा बाद आते है उन्हें भी परस्पर किया जा रहा है । और समस्त विलास के विश्राम हेतू आसमा के विश्राम की लालसा हो रही है । विश्राम में वह जीवन जो स्वप्न वत हो वह निभृत है । विश्राममय नित्य ख्वाबों में परस्पर का सघन रमण । ना यह विश्राम भंग होता है ना विश्राम उपरान्त रमण (विलास) भंग होता है । अपितु विश्राम जितना अप्रकट बाहर होता है भीतर उतनी उसकी सघनता हो जाती है   । क्या विश्राम बाद जीव अपने जीवन से भी रस लें सकता है ???   ...परन्तु नित्य प्रेम में वह परस्पर विश्राम ही परस्पर विलास होकर बाह्य अप्रकट और हिय में नित्य विलसित निभृत रस रहता है । तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

(आपकी भाव हानि ना हो तब यह गीत आप सुन सकते है इंटरनेट पर ...ऐसे बहुत गीत है जिन्हें शायद रचियता भी पूरा जी नही सकता ...वह ख्वाब ही निभृत है )
धागे तोड़ लाओ चाँदनी से नूर के
घूंघट ही बना लो रोशनी से नूर के
शर्म आ गयी तो आगोश में लो
साँसों से उलझी रहे मेरी सांसें
बोल ना हलके-हलके, बोल ना हलके-हलके,
होंठ से हलके-हलके, बोल ना हलके

आ नींद का सौदा करें, इक ख्वाब दें, इक ख्वाब लें
इक ख्वाब तो आँखों में है, इक चाँद के तकिये तलें
कितने दिनों से ये आसमान भी सोया नहीं है, इसको सुला दें
बोल ना हलके हलके...

उम्र लगी कहते हुए, दो लफ्ज़ थे इक बात थी
वो इक दिन सौ साल का, सौ साल की वो रात थी
कैसा लगे जो चुप-चाप दोनों, पल-पल में पूरी सदियाँ बिता दें
बोल ना हलके हलके...

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